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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 12-22
इस प्रकार मत निश्चित करके कृष्ण, भीम और अर्जुन मगध की ओर चले। उन्होंने अपने जाने की बात गुप्त रखी और स्नातकों का वेश बना लिया, जो कि विद्या पढ़कर गुरुगृह से लौटते हुए इधर-उधर चरक वेश में जाते-आते रहते थे और कोई उन्हें शंका की दृष्टि से न देखता था। इस वेश में फूल-मालाओं का पहनना आवश्यक था। कृष्ण के सामने दूसरी समस्या यात्रा का मार्ग निश्चित करने की थी। मध्यदेश में से साकेत, वाराणसी होता हुआ जो मार्ग मगध को जाता था, उसे उन्होंने छोड़ दिया। सन्देह के निवारण के लिए पहले वे पश्चिम की ओर कुरु-जांगल में घुसे, जो वर्तमान हिसार-सिरसा का इलाका था। वहाँ से कुरुक्षेत्र के पद्यसर नामक स्थान में होते हुए फिर उत्तर-पूर्व की ओर मुड़े। वहाँ कालसी, देहरादून और सुकेत के बीच में कालकूट जनपद था। उसे पार कर पहाड़ की तराई के किनारे-किनारे आबादी को बचाते हुए और सरयू, सदानीरा या राप्ती तथा गंडकी को पार कर मिथिला में घुसे और वहाँ से गंगा उतरकर पूरब की ओर मुड़े। वहाँ जंगल में कुरुवार (कुरवोरश्छद) आदि आदिनिवासियों के इलाके में होकर गोरथगिरि के पास पहुँचे, जहाँ मगध की राजधानी थी। गिरिव्रज वैहार, वृषभ, वराह, चैत्यका-गिरि और ऋषि-गिरि, इन पांच पहाड़ियों के बीच में बसा हुआ था। बौद्ध साहित्य में और पुरातत्त्व की खुदाई से भी इन पांचों पहाड़ियों के बीच की बस्ती के प्रमाण मिले हैं। पहाड़ियों के बीच में गिरिव्रज को घेरने वाला एक बाहरी परकोटा था, जिसके अवशेष पच्चीस-तीस मील की लम्बाई तक पाये गए हैं। यह दीवार पत्थर के बड़े-बड़े ढोकों से बनाई गई थी, जिसकी चौड़ाई कहीं-कहीं पर अठारह फुट तक मिली है और ऊंचाई भी बारह फुट तक है। इसमें स्थान-स्थान पर बुर्ज बने हुए थे। पश्चिम की ओर वैहारगिरि की तलहटी में अभी तक रणभूमि नामक स्थान है, जिसे ‘जरासन्ध का अखाड़ा’ भी कहते हैं। वैहार गिरी के पूर्वी छोर पर जरासन्ध की बैठक या मचान है। गिरिव्रज को राजगृह भी कहते थे। इसके बीचों बीच मणिनाग का स्थान था, जो आजकल का मणियार मठ है। कृष्ण और दोनों पाण्डव राजगृह के बाहरी परकोटे के पास पहुँचकर उसके साधारण द्वार से भीतर नहीं घुसे। राजगृह में प्रवेश करने के लिए उत्तरी द्वार, जहाँ तप्तोद कुंड है, और दक्षिणी द्वार जहाँ से बाणगंगा निकली है, ये दो द्वार थे। कृष्ण आदि को इसी उत्तरी द्वार से प्रवेश करना चाहिए था, किन्तु वे ऋषभागिरि की, जिसका दूसरा नाम संभवतः चैत्यक गिरि भी था, ओर बढ़े। राजमहल के चारों ओर एक अन्दरूनी परकोटा था उसमें भी प्रवेश कठिन था। किन्तु उस समय ऐसा हुआ कि जरासन्ध के पुरोहित राजा के यहाँ अग्निहोत्रादि कर्म करने के लिए धूमधाम से जा रहे थे। ये भी उन्हीं के साथ मिलकर महल की तीन कक्षाओं को पार करते हुए भीतर जा पहुँचे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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