विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 12-22
जरासन्ध का व्रत था कि वह स्नातक ब्राह्मणों का आधी रात को आने पर भी स्वागत किया करता था। अतः इन्हें देखकर इनका भी उसने स्वागत किया और बैठने के लिए कहा किन्तु; इनका अपूर्व वेश देखकर वह विस्मित हुआ और बोला, “स्नातक विप्रों को माल्य और अनुलेपन के साथ मैंने देखा है, किन्तु उनकी भुजाओं में प्रत्यंचा के निशान नहीं देखे। सच बताओ, तुम कौन हो? सत्य कहने में ही राजाओं की शोभा है। चैत्यक-गिरि की चोटी पर चढ़कर सीधे मेरे महल में अद्वार से इस प्रकार निर्भय होकर आने वाले तुम कौन हो और क्यों मेरी दी हुई पूजा को तुम स्वीकार नहीं करते?” यह सुनकर कृष्ण ने कहा, “हे राजन, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों ही स्नातक व्रती होते हैं, किन्तु उनके नियम अलग हैं। क्षत्रिय की शक्ति भुजा में रहती है, वाणी में नहीं। वह श्री चाहता है। मित्र के घर में द्वार से और शत्रु के घर में अद्वार से घुसना चाहिए। शत्रु होने के कारण हमने तुम्हारी पूजा नहीं ली।’’ इस प्रसंग में यह ध्यान रखने योग्य है कि केवल दो साथियों के साथ जरासन्ध के कोट में और फिर उसके महल के भीतरी भाग में घुसकर कृष्ण ने बड़े साहस का काम किया और भारी जोखिम भी उठाई। यदि जरासन्ध एक-एक के साथ युद्ध करने की उनकी चुनौती को स्वीकार न कर लेता तो उन तीनों पर सभी कुछ संकट आ सकता था। यह भी सम्भव है कि राजगृह में भी कुछ लोग जरासन्ध से असन्तुष्ट हों; क्योंकि इसी प्रसंग में कृष्ण ने पहले कहा है कि मागधों में एक सौ एक कुल ऐसे हैं, जो जरासन्ध से प्रसन्न नहीं हैं, अतएव उन पर वह बलपूर्वक शासन करता है।[1] कृष्ण की बात सुनकर जरासन्ध ने कहा, ‘‘मुझे तो याद नहीं कि तुम्हारे साथ, मेरा वैर हुआ हो। कुछ बिगाड़ न करने पर भी क्यों तुम मुझे अपना वैरी मानते हो?’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सभा. 14।13
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज