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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 7-11
यह सुनकर युधिष्ठिर ने भाइयों के साथ मंत्रणा की और राजसूय यज्ञ करने का संकल्प किया। उन्होंने सर्वप्रथम अपने मन में सोचा कि किस प्रकार सब लोगों का हित किया जाय, क्योंकि प्रजाओं के प्रति अनुग्रह उस यज्ञ की पहली सीढ़ी है। युधिष्ठिर ने जब राजसूय के संकल्प से प्रजाहित का अवलम्बन किया, तब वह सच्चे अर्थों में अजातशत्रु बन गए। राज्य में कोई उनका वैरी न रहा। उधर वह अपने भाइयों और मंत्रियों से बार-बार राजसूय के विषय में सलाह करने लगे। मंत्रियों ने कहा, “हे महाप्राज्ञ, आपको अवश्य यह यज्ञ करना चाहिए। राजसूय से अभिषिक्त होकर ही राजा सम्राट बनता है। आपमें सम्राट बनने के गुण हैं। आपके लिए राजसूय का अनुकूल समय है। हम सब आपके वशवर्ती हैं। अतएव बिना विचार किये अब आप राजसूय-यज्ञ का निश्चय कीजिए।” वस्तुतः यहाँ तक युधिष्ठिर में और दुर्योधन में राजनैतिक होड़ या सीधी टक्कर होने का कोई कारण नहीं बना था। दुर्योधन गंगा के किनारे हस्तिनापुर में और युधिष्ठिर यमुना के तट पर इन्द्रप्रस्थ में समान पदवी के राजा थे। युधिष्ठिर के मन में महत्त्वाकांक्षा का यह नया अंकुर उत्पन्न हो गया। उन्होंने बार-बार अपने पुरोहित धौम्य और कुलवृद्ध द्वैपायन व्यास से परामर्श किया, किन्तु उनके समर्थन से भी वह कार्य के निश्चय पर न पहुँच सके। तब उनके मन में यह विचार आया कि अकेले कृष्ण ही इस विषय में पक्की सलाह दे सकते हैं। वह इस समय सब लोगों से बुद्धि में श्रेष्ठ हैं। उनके कर्म देवतुल्य हैं। कोई विषय ऐसा नहीं, जो उन्हें न आता हो। इस प्रकार बुद्धि स्थिर करके उन्होंने द्वारावती में अपना दूत भेजा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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