भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 1
इस दृष्टि से इतिहास का सम्यक पारायण महत्त्वपूर्ण है। इतिहास-पुराण की इस प्राचीन परम्परा का उल्लेख छान्दोग्य उपनिषद में नारद और सनत्कुमार के संवाद में भी पाया जाता है, जहाँ इतिहास-पुराण को पंचम वेद कहा है। पाली साहित्य से भी इसका समर्थन होता है। वहाँ चार वेदों के साथ आख्यान अथवा इतिहास को पांचवां वेद माना है।[1] उपनिषद का उल्लेख उस स्थिति का परिचायक है, जिसमें इतिहास-पुराण का स्वतन्त्र अध्ययन उसी प्रकार होने लगा था, जैसे चरणों के अन्तर्गत वैदिक साहित्य का। इस प्रकार के विद्वान पाणिनीय सूत्र ‘तदधीते तद्वेद’ के अनुसार ऐतिहासिक या पौराणिक कहे जाते थे। वेद के अर्थ करने वालों की कई परम्पराओं का उल्लेख करते हुए यास्क ने नैरुक्त और याज्ञिक्य सम्प्रदायों के अतिरिक्त ऐतिहासिक सम्प्रदाय का भी उल्लेख किया है। वृत्र मेघ है, यह नैरुक्तों का मत था, किन्तु वृत्र त्वष्टा का पुत्र है, यह ऐतिहासिकों का मत था। इन्हीं ऐतिहासिकों ने वृत्रासुर और इन्द्र के पल्लवित रोचक उपाख्यान की कल्पना की। इस प्रकार के कितने ही आख्यान और उन से कम महत्त्व की आख्यायिकाएं वैदिक साहित्य के अन्तर्गत और लोक में बराबर बढ़ रही थीं। पौराणिकों के सम्प्रदाय में वे सुरक्षित होती जाती थीं। हिमालय से जैसे शतसहस्रसंख्यक निर्झर और वेगवती जल-धाराएं ढलानों पर बहती हुई उसके तटान्त में गंगा की जलधारा में जा मिलती हैं, वैसे ही वैदिक चरणों में और लोक में उत्पन्न ये अनेक आख्यान और कथाएं क्रमशः प्रवर्द्धमान होती हुई भारत-इतिहास के वाङ्मय में आ मिलीं और उसी से महाभारत का पल्लवित, पुष्पित और प्रतिमण्डित वह रूप सम्पन्न हुआ, जो सूर्य, चन्द्र और तारों की भाँति आज भी लोक में विराजमान है। उपाख्यानों से रहित चौबीस सहस्र श्लोकों की चतुर्विंशतिसाहस्री संहिता ‘भारत’ नाम से प्रसिद्ध थी। वही अनेक उपाख्यानों को आत्मसात करके लक्ष श्लोकात्मक महाभारत की शतसाहस्री संहिता बन गई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वेदं अक्खान पंचमन्, जातक 5।450 ; टीका इतिहास पंचमं वेदचतुकम्
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