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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 13
वैकुण्ठ में कमलाकान्त नारायण हैं तथा श्वेतद्वीप में जो जगत्पालक विष्णु निवास करते हैं, वे भी इन्हीं में अन्तर्भूत हैं। महर्षि कपिल तथा इनके अन्यान्य अंश ऋषि नर-नारायण भी इनसे भिन्न नहीं हैं। ये सबके तेजों की राशि हैं। वह तेजोराशि ही मूर्तिमान होकर उनके यहाँ अवतीर्ण हुई है। भगवान श्रीकृष्ण वसुदेव को अपना रूप दिखाकर शिशुरूप हो गये और सूतिकागार से इस समय तुम्हारे घर में आ गये हैं। ये किसी योनि से प्रकट नहीं हुए हैं; अयोनिज रूप में ही भूतल पर प्रकट हुए हैं। इन श्रीहरि ने माया से अपनी माता के गर्भ को वायु से पूर्ण कर रखा था। फिर स्वयं प्रकट हो अपने उस दिव्य रूप का वसुदेव जी को दर्शन कराया और फिर शिशुरूप हो वे यहाँ आ गये। गोपराज! युग-युग में इनका भिन्न-भिन्न वर्ण और नाम है; ये पहले श्वेत, रक्त और पीतवर्ण के थे। इस समय कृष्णवर्ण होकर प्रकट हुए हैं। सत्ययुग में इनका वर्ण श्वेत था। ये तेजःपुंज से आवृत होने के कारण अत्यन्त प्रसन्न जान पड़ते थे। त्रेता में इनका वर्ण लाल हुआ और द्वापर में ये भगवान पीतवर्ण के हो गये। कलियुग के आरम्भ में इनका वर्ण कृष्ण हो गया। ये श्रीमान तेज की राशि हैं, परिपूर्णतम ब्रह्म हैं; इसलिये ‘कृष्ण’ कहे गये हैं। ‘कृष्णः’ पद में जो ‘ककार’ है, वह ब्रह्मा का वाचक है। ‘ऋकार’ अनन्त (शेषनाग)– का वाचक है। मूर्धन्य ‘षकार’ शिव का और ‘णकार’ धर्म का बोधक है। अन्त में जो ‘अकार’ है, वह श्वेतद्वीप निवासी विष्णु का वाचक है तथा विसर्ग नर-नारायण-अर्थ का बोधक माना गया है। ये श्रीहरि उपर्युक्त सब देवताओं के तेज की राशि हैं। सर्वस्वरूप, सर्वाधार तथा सर्वबीज हैं; इसलिये ‘कृष्ण’ कहे गये हैं। ‘कृष्’ शब्द निर्वाण का वाचक है, ‘णकार’ मोक्ष का बोधक है और ‘अकार’ का अर्थ दाता है। ये श्रीहरि निर्वाण मोक्ष प्रदान करने वाले हैं; इसलिये ‘कृष्ण’ कहे गये हैं। ‘कृष्’ का अर्थ है निश्चेष्ट, ‘ण’ का अर्थ है भक्ति और ‘अकार’ का अर्थ है दाता। भगवान निष्कर्म भक्ति के दाता हैं; इसलिये उनका नाम ‘कृष्ण’ है। ‘कृष्’ का अर्थ है कर्मों का निर्मूलन, ‘ण’ का अर्थ है दास्यभाव और ‘अकार’ प्राप्ति का बोधक है। वे कर्मों का समूल नाश करके भक्ति की प्राप्ति कराते हैं; इसलिये ‘कृष्ण’ कहे गये हैं। नन्द! भगवान के अन्य करोड़ों नामों का स्मरण करने पर जिस फल की प्राप्ति होती है, वह सब केवल ‘कृष्ण’ नाम का स्मरण करने से मनुष्य अवश्य प्राप्त कर लेता है। ‘कृष्ण’ नाम के स्मरण का जैसा पुण्य है, उसके कीर्तन और श्रवण से भी वैसा ही पुण्य होता है। श्रीकृष्ण के कीर्तन, श्रवण और स्मरण आदि से मनुष्य के करोड़ों जन्मों के पाप का नाश हो जाता है। भगवान विष्णु के सब नामों में ‘कृष्ण’ नाम ही सबकी अपेक्षा सारतम वस्तु और परात्पर तत्त्व है। ‘कृष्ण’ नाम अत्यन्त मंगलकारी, सुन्दर तथा भक्तिदायक है।[1] ‘ककार’ के उच्चारण से भक्त पुरुष जन्म-मृत्यु नाश करने वाले कैवल्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। ‘ऋकार’ के उच्चारण से भगवान का अनुपम दास्यभाव प्राप्त होता है। ‘षकार’ के उच्चारण से उनकी मनोवांछित भक्ति सुलभ होती है। ‘णकार’ के उच्चारण से तत्काल ही उनके साथ निवास का सौभाग्य प्राप्त होता है और विसर्ग के उच्चारण से उनके सारूप्य की उपलब्धि होती है, इसमें संशय नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नाम्नां भगवतो नन्द कोटीनां स्मरणे च यत्। तत्फलं लभते नूनं कृष्णेति स्मरणान्नरः।।
यद्विधं स्मरणे पुण्यं वचनाच्छ्रवणात् तथा। कोटिजन्मांहसां नाशो भवेद् यत्स्मरणादिकात्।।
विष्णोर्नाम्नां च सर्वेषां सर्वात् सारं परात्परम्। कृष्णेति मङ्गलं नाम सुन्दरं भक्तिदास्यदम्।।-(श्रीकृष्णजन्मखण्ड 13। 63-65)
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