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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 1-3
पापरूपी ईंधन-राशि का दाह करने के लिये प्रज्वलित अग्नि-शिखा के समान है। इसे सुनने वाले पुरुषों के करोड़ों जन्मों की पापराशि का यह नाश कर देती है। भगवान की कथा शोक-सागर का नाश करने वाली मुक्ति है। वह कानों में अमृत के समान मधुर प्रतीत होती है। कृपानिधे! मैं आपका भक्त एवं शिष्य हूँ। आप मुझे श्रीहरि कथा का ज्ञान प्रदान कीजिये। तप, जप, बड़े-बड़े दान, पृथ्वी के तीर्थों के दर्शन, श्रुतिपाठ, अनशन, व्रत, देवार्चन तथा सम्पूर्ण यज्ञों में दीक्षा ग्रहण करने से मनुष्य को जो फल मिलता है, वह सब ज्ञानदान की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। पिता जी ने मुझे आपके पास ज्ञान प्राप्त करने के लिये भेजा है। सुधा-समुद्र के पास पहुँचकर कौन दूसरी वस्तु (जल आदि) पीने की इच्छा करेगा? भगवान नारायण बोले– कुल को पवित्र करने वाले नारद! मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ। तुम धन्य हो। पुण्य की मूर्तिमती राशि हो। लोकों को पवित्र करने के लिये ही तुम इनमें भ्रमण करते हो। वाणी से मनुष्यों के हृदय की तत्काल पहचान हो जाती है। शिष्य, कलत्र, कन्या, दौहित्र, बन्धु-बान्धव, पुत्र-पौत्र, प्रवचन, प्रताप, यश, श्री, बुद्धि, वैरी और विद्या– इनके विषय में मनुष्यों के हार्दिक अभिप्राय का पता चल जाता है। तुम जीवन्मुक्त और पवित्र हो। भगवान गदाधर के शुद्ध भक्त हो। अपने चरणों की धूल से सबकी आधारभूता वसुधा को पवित्र करते फिरते हो। समस्त लोकों को अपने स्वरूप का दर्शन देकर पवित्र बनाते हो। भगवान श्रीहरि की कथा परम मंगलमयी है, इसीलिये तुम उसे सुनना चाहते हो। जहाँ श्रीकृष्ण की कथाएँ होती हैं, वहीं सब देवता निवास करते हैं। ऋषि, मुनि और सम्पूर्ण तीर्थ भी वहीं रहते हैं। वे कथा सुनकर अन्त में अपने निरापद स्थान को जाते हैं। जिन स्थानों में श्रीकृष्ण की शुभ कथाएँ होती हैं, वे तीर्थ बन जाते हैं। सैकड़ों जन्मों तक तपस्या करके जो पवित्र हो गया है, वही इस भारतवर्ष में जन्म पाता है। वह यदि श्रीहरि की अमृतमयी कथा का श्रवण करे, तभी अपने जन्म को सफल कर सकता है। भगवान की पूजा, वन्दना, मन्त्र-जप, सेवा, स्मरण, कीर्तन, निरन्तर उनके गुणों का श्रवण, उनके प्रति आत्मनिवेदन तथा उनका दास्यभाव– ये भक्ति के नौ लक्षण हैं।[1] नारद! इन सबका अनुष्ठान करके मनुष्य अपने जन्म को सफल बनाता है। उसके मार्ग में विघ्न नहीं आता और उसकी पूरी आयु नष्ट नहीं होती। उसके सामने काल उसी तरह नहीं जाता है, जैसे गरुड़ के सामने सर्प। भगवान श्रीहरि उस भक्त का सामीप्य एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ते हैं। अणिमा आदि सिद्धियाँ तुरंत उसकी सेवा में उपस्थित हो जाती हैं। भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से उसकी रक्षा के लिये सुदर्शन चक्र दिन-रात उसके पास घूमता रहता है। फिर कौन उसका क्या कर सकता है? यमराज के दूत स्वप्न में भी उसके निकट वैसे ही नहीं जाते हैं, जैसे शलभ जलती हुई आग को देखकर उससे दूर भागते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अर्चनं वन्दनं मन्त्रजपं सेवनमेव च। स्मरणं कीर्तनं शश्वद् गुणश्रवणमीप्सितम्।। निवेदनं तस्य दास्यं नवधा भक्तिलक्षणम्।-(श्रीकृष्णजन्मखण्ड 1। 33-34)
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