ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 28
ब्रह्मा ने कहा– वत्स! बहुसंख्यक जीवों का विनाश करने वाली तुम्हारी प्रतिज्ञा दुष्कर है; क्योंकि यह सृष्टि भगवान श्रीहरि की इच्छा से उत्पन्न होती है। बेटा! उन्हीं परमेश्वर की आज्ञा से मैंने बड़े कष्ट से इस सृष्टि की रचना की है; किंतु तुम्हारी निर्दयातपूर्ण घोर प्रतिज्ञा सृष्टि का लोप कर देने वाली है। तुम एक क्षत्रिय के अपराध से पृथ्वी को इक्कीस बार भूपरहित कर देना चाहते हो और क्षत्रिय-जाति को समूल नष्ट करने की तुमने ठान ली है। किंतु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र– यह चार प्रकार की सृष्टि नित्य है, जो श्रीहरि की ही आज्ञा से पुनः-पुनः आविर्भूत और तिरोहित होती रहती है। अन्यथा किसी प्राक्तन कर्मानुसार तुम्हारी प्रतिज्ञा पूर्ण होगी। तुम्हें अपनी कार्यसिद्धि के लिये बड़ा परिश्रम करना पड़ेगा। अतः वत्स! तुम शिवलोक में जाओ और शंकर की शरण ग्रहण करो; क्योंकि भूतल पर बहुत-से नरेश शंकर के भक्त हैं। जब वे शक्तिस्वरूपा पार्वती और शंकर के दिव्य कवच को धारण करके खड़े होंगे, तब महेश्वर की आज्ञा के बिना उन्हें मारने में कौन समर्थ हो सकता है? अतः जो विजय का कारण एवं शुभकारक है, उस उपाय को तुम यत्नपूर्वक करो; क्योंकि उपायपूर्वक आरम्भ किये गये कार्य ही सिद्ध होते हैं। इसलिये तुम शंकर से श्रीकृष्ण मन्त्र और कवच को ग्रहण करो। वह वैष्णव तेज परम दुर्लभ है। उसके प्रभाव से तुम शैव और शाक्त दोनों तेजों पर विजय पा सकोगे। जगदीश्वर शिव तुम्हारे जन्म-जन्मान्तर के गुरु हैं। अतः मुझसे मन्त्र ग्रहण करना तुम्हारे लिये युक्त नहीं है; क्योंकि जो उपयुक्त होता है, वही विधि है। कर्मभोग से ही मन्त्र, स्वामी, स्त्री, गुरु और देवता प्राप्त होते हैं। जो जिनके हैं, वे उनके पास स्वयं ही उपस्थित होते हैं, यह ध्रुव है। भृगुनन्दन! तुम त्रैलोक्यविजय नामक श्रेष्ठ कवच ग्रहण करके इक्कीस बार पृथ्वी को भूपरहित कर डालोगे। दानी शंकर तुम्हें दिव्य पाशुपतास्त्र प्रदान करेंगे। उस दिये हुए मन्त्र के बल से तुम क्षत्रिय समुदाय को जीत लोगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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