ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 28
तब अपने स्वामी का नाम सुनकर वहाँ श्रीहरि के दूत आ पहुँचे। वे सभी रथ पर सवार थे। उनके शरीर का रंग श्याम था। सुन्दर चार भुजाएँ थीं, जिनमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए थे। उनके गले में वनमाला लटक रही थी और वे किरीट, कुण्डल तथा रेशमी पीताम्बर से विभूषित थे। वे उस रेणुका को रथ में बिठाकर ब्रह्मलोक में गये और जमदग्नि को लेकर श्रीहरि के संनिकट जा पहुँचे। वहाँ वैकुण्ठ में वे दोनों पति-पत्नी निरन्तर श्रीहरि की परिचर्या, जो मंगलों की मंगल है, करते हुए श्रीहरि के संनिकट रहने लगे। नारद! इधर परशुराम ने ब्राह्मणों तथा भृगुजी के सहयोग से माता-पिता की शेष क्रिया समाप्त करके ब्राह्मणों को बहुत-सा धन दान दिया। फिर गौ, भूमि, स्वर्ण, वस्त्र, सुवर्णनिर्मित पलंगसहित मनोरम दिव्य शय्या, जल, अन्न, चन्दन, रत्नदीप, चाँदी का पहाड़, सुवर्ण के आधारसहित स्वर्णनिर्मित उत्तम आसन, सुवासित ताम्बूल, छत्र, पादुका, फल, मनोहर माला, फल-फूल-जल और मनोहर मिष्टान्न तथा धन ब्राह्मणों को देकर वे ब्रह्मलोक को चल पड़े। ब्रह्मलोक में पहुँचकर परशुराम ने भक्तिभाव से अव्ययात्मा ब्रह्मा जी को नमस्कार करके रोते हुए सारी घटना कह सुनायी। कृपामय ब्रह्मा जी ने सारी बातें सुनकर उन्हें शुभाशीर्वाद दिया और अपने हृदय से लगा लिया। भृगुवंशी परशुराम की बहुत-से जीवों का विनाश करने वाली, दुष्कर एवं भयंकर प्रतिज्ञा को सुनकर चतुर्मुख ब्रह्मा को महान विस्मय हुआ। वे ‘प्रारब्धवश सब कुछ घटित हो सकता है’ ऐसा मन में विचारकर परशुराम से परिणाम में सुखदायक वचन बोले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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