ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 40-41
स्वाहा बोलीं– ब्रह्मन! मैं दीर्घकाल तक तपस्या करके भगवान श्रीकृष्ण की सेवा का सौभाग्य प्राप्त करूँगी। उन परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण के अतिरिक्त जो कुछ भी है सब स्वप्न के समान भ्रममात्र है। तुम जो जगत की सृष्टि करते हो, भगवान शंकर ने जो मृत्यु पर विजय प्राप्त की है, शेषनाग जो अखिल विश्व को धारण करते हैं, धर्म जो समस्त देहधारियों के साक्षी हैं, गणेश जी जो सम्पूर्ण देव-समाज में सर्वप्रथम पूजा प्राप्त करते हैं तथा जगदम्बा प्रकृति देवी जो सर्वपूज्या हुई हैं– यह सब उन भगवान श्रीकृष्ण के कृपा-प्रसाद का ही फल है। भगवान श्रीकृष्ण के सेवक होने से ही ऋषियों और मुनियों का सर्वत्र समान है। अतः पद्मज! मैं भी एकमात्र उन्हीं परम प्रभु श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का सानुराग चिन्तन करती हूँ। ब्रह्मा जी से यों कहकर वे कमलमुखी देवी स्वाहा निरामय भगवान श्रीकृष्ण के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये चल दीं। फिर एक पैर से खड़ी होकर उन्होंने श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए वर्षों तक तप किया। तब प्रकृति से परे निर्गुण परब्रह्म श्रीकृष्ण के दर्शन उन्हें प्राप्त हुए। भगवान के परम कमनीय सौन्दर्य को देखकर सुरूपिणी देवी स्वाहा मूर्च्छित-सी हो गयीं; क्योंकि वे उन कामेश्वर प्रभु को कान्तभाव से चाहने लगी थीं। चिरकाल तक तपस्या करने के कारण क्षीण शरीर वाली देवी स्वाहा के अभिप्राय को वे सर्वज्ञ प्रभु समझ गये। उन्होंने उन्हें उठाकर अपने अंक में बैठा लिया और कहा। भगवान श्रीकृष्ण बोले– कान्ते! तुम वाराहकल्प में अपने अंश से मेरी प्रिया बनोगी। तुम्हारा नाम ‘नाग्नजिती’ होगा। राजा नग्नजित तुम्हारे पिता होंगे। इस समय तुम दाहिकाशक्ति के रूप में अग्नि की प्रिय पत्नी बनो। मेरे प्रसाद से तुम मन्त्रों की अंगभूता एवं परम पवित्र होओगी। अग्निदेव तुम्हें अपनी गृहस्वामिनी बनाकर भक्तिभाव के साथ तुम्हारी पूजा करेंगे। तुम परम रमणीया देवी के साथ वे सानन्द विहार करेंगे। नारद! देवी स्वाहा से इस प्रकार सम्भाषण करके उन्हें आश्वासन दे भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये। फिर ब्रह्मा जी की आज्ञा के अनुसार डरते हुए अग्निदेव वहाँ आये और सामवेद में कही हुई विधि से जगज्जननी भगवती का ध्यान करके उन्होंने देवी की भलीभाँति पूजा और स्तुति की। तत्पश्चात् अग्निदेव ने मन्त्रोच्चारणपूर्वक स्वाहा देवी का पाणिग्रहण किया। देवताओं के वर्ष से सौ वर्ष तक वे उसके साथ आनन्द करते रहे। परम सुखप्रद निर्जन देश में रहते समय देवी स्वाहा अग्निदेव के तेज से गर्भवती हो गयीं। बारह दिव्य वर्षों तक वे उस गर्भ को धारण किये रहीं, तत्पश्चात् दक्षिणाग्नि, गार्हपत्याग्नि और आहवनीयाग्नि के क्रम से उनके मन को मुग्ध करने वाले परम सुन्दर तीन पुत्र उनसे उत्पन्न हुए। तब ऋषि, मुनि, ब्राह्मण तथा क्षत्रिय आदि सभी श्रेष्ठ वर्ण ‘स्वाहान्त’ मन्त्रों का उच्चारण करके अग्नि में हवन करने लगे और देवताओं को वह आहाररूप से प्राप्त होने लगा। जो पुरुष स्वाहा युक्त प्रशस्त मन्त्र का उच्चारण करता है, उसे केवल मन्त्र पढ़ने मात्र से ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। जिस प्रकार विषहीन सर्प, वेदहीन ब्राह्मण, पति सेवा विहीन स्त्री, विद्याहीन पुरुष तथा फल एवं शाखाहीन वृक्ष निन्दा के पात्र हैं, वैसे ही स्वाहाहीन मन्त्र भी निन्द्य है। ऐसे मन्त्र से किया हुआ हवन शीघ्र फल नहीं देता। फिर तो सभी ब्राह्मण संतुष्ट हो गये। देवताओं को आहुतियाँ मिलने लगीं। स्वाहान्त मन्त्र से ही उनके सारे कर्म सफल होने लगे। मुने! भगवती स्वाहा से सम्बन्ध रखने वाला इस प्रकार यह सारा श्रेष्ठ उपाख्यान कह सुनाया। यह सारभूत प्रसंग सुख और मोक्ष प्रदान करने वाला है। अब और क्या सुनना चाहते हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |