ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 38-39
नारद! इस प्रकार कहकर ब्रह्मा जी सम्पूर्ण देवताओं को साथ ले वैकुण्ठलोक में गये। वहाँ जाने पर उन्हें परब्रह्म सनातन भगवान श्रीहरि के दर्शन हुए। उस समय वे तेजःपुञ्ज प्रभु अपने ही तेज से प्रकाशित हो रहे थे। उनका श्रीविग्रह ऐसा जान पड़ता था, मानो ग्रीष्म-ऋतु के मध्याह्नकालिक असंख्य सूर्य एक साथ चमक रहे हों। वे आदि, मध्य और अन्त से रहित लक्ष्मीकान्त भगवान श्रीहरि शान्तरूप से विराजमान थे। वे चार भुजावाले पार्षदों से और भगवती सरस्वती से युक्त थे। चारों वेदों सहित भगवती गंगा भक्ति प्रदर्शित करती हुई उनके पास विराजमान थीं। उन्हें देखकर ब्रह्मा के अनुयायी सम्पूर्ण देवताओं ने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। उनके प्रत्येक अंग में भक्ति और विनय का विकास हो चुका था। आँखों में आँसू भरकर वे परम प्रभु भगवान श्रीहरि की स्तुति करने लगे। स्वयं ब्रह्मा जी ने हाथ जोड़कर भगवान से यथावत समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। उस समय समस्त देवता अपने अधिकार से च्युत होने के कारण रो रहे थे। विपत्ति ने उनके हृदय में भलीभाँति स्थान प्राप्त कर लिया था। भय के कारण उनमें घबराहट की सीमा नहीं थी। उनके शरीर पर एक भी रत्न या आभूषण नहीं था। वे सवारी से भी रहित थे। उन सभी के मुख म्लान थे। श्री तो पहले ही उनका साथ छोड़ चुकी थी। वे निस्तेज एवं भयग्रस्त थे। कुछ भी करने की शक्ति उनमें नहीं रह गयी थी। देवताओं को ऐसी दीन दशा में पड़े हुए देखकर भय को दूर करने वाले भगवान श्रीहरि ने उनसे कहा। भगवान श्रीहरि बोले– ब्रह्मन तथा देवताओं! भय मत करो। मेरे रहते तुम लोगों को किस बात का भय है। मैं तुम्हें परम ऐश्वर्य को बढ़ाने वाली अचल लक्ष्मी प्रदान करूँगा; परंतु मैं कुछ समयोचित बात कहता हूँ, तुम लोग उस पर ध्यान दो। मेरे वचन हितकर, सत्य, सारभूत एवं परिणाम में सुखावह हैं। जैसे अखिल विश्व के सम्पूर्ण प्राणी निरन्तर मेरे अधीन रहते हैं, वैसे ही मैं भी अपने भक्तों के अधीन हूँ। मैं अपनी इच्छा से कभी कुछ नहीं कर सकता। सदा मेरे भजन-चिन्तन में लगे रहने वाला निरंकुश भक्त जिस पर रुष्ट हो जाता है, उसके घर लक्ष्मी सहित मैं नहीं ठहर सकता– यह बिलकुल निश्चित है। मुनिवर दुर्वासा महाभाग शंकर के अंश एवं वैष्णव पुरुष हैं। उनके हृदय में मेरे प्रति अटूट श्रद्धा भी है। उन्होंने तुम्हें शाप दे दिया है। अतएव तुम्हारे घर से लक्ष्मी सहित मैं चला आया हूँ; क्योंकि जहाँ शंखध्वनि नहीं होती, तुलसी का निवास नहीं रहता, शंकर की पूजा नहीं होती तथा ब्राह्मणों को भोजन नहीं कराया जाता, वहाँ लक्ष्मी नहीं रहतीं। ब्राह्मन तथा देवताओ! जहाँ मेरे भक्तों की निंदा होती है, वहाँ रहने वाली महालक्ष्मी के मन में अपार क्रोध उत्पन्न हो जाता है। अतः वे उस स्थान को छोड़कर चल देती हैं। जो मेरी उपासना नहीं करता तथा एकादशी और जन्माष्टमी के दिन अन्न खाता है, उस मूर्ख व्यक्ति के घर से भी लक्ष्मी चली जाती हैं। जो मेरे नाम का तथा अपनी कन्या का विक्रय करता है एवं जहाँ अतिथि भोजन नहीं पाता, उस घर को त्यागकर मेरी प्रिया लक्ष्मी अन्यत्र चली जाती हैं। जो ब्राह्मण पुंश्चली के उदर से उत्पन्न हुआ है अथवा पुंश्चली का पति है, उसे ‘महापापी’ कहा गया है। उसके घर लक्ष्मी नहीं ठहर सकतीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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