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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
6. गीता में मूर्ति-पूजा
ज्ञातव्य
उत्तर- इसका कारण यह है कि मनुष्य अपने को शरीर मानता है। अपने को शरीर मानने से उसका संसार के साथ सुगमतापूर्वक संबंध हो जाता है; क्योंकि शरीर की संसार से एकता है। जिससे एकता (सजातीयता) होती है, उसके साथ अनायास संबंध जुड़ जाता है। जैसे, जो अपने को ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मानता है, उसका ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के साथ और जो अपने को विद्वान, व्यापारी आदि मानता है, उसका विद्वान, व्यापारी आदि के साथ सुगमता पूर्वक संबंध जुड़ जाता है- ‘समानशीलव्यसनेषु सख्यम्’। भगवान् तो प्रत्यक्ष दीखते नहीं और स्वयं अपने को मूर्ति (शरीर) मानता है, तो उसके लिए मूर्ति में भगवान् का भाव करना ही सुगम है। अतः जब तक शरीरर में मैं मेरापन है, तब तक मनुष्य को मूर्तिपूजा जरूर करनी चाहिए। भगवत्प्राप्ति होने के बाद भी मूर्तिपूजा को नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि जिस साधन से लाभ हुआ है, उसके प्रति कृतज्ञ बने रहना चाहिए, उसका त्याग नहीं करना चाहिए। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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