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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
95. गीता में 'तत्' और 'अस्मत्' पद से भगवान का वर्णन
‘जिसके अंतर्गत संपूर्ण प्राणी हैं और जिससे यह संपूर्ण संसार व्याप्त है, वह परमात्मा अनन्यभक्ति से ही प्राप्त हो सकता है’ ‘पुरुषः स परः......सर्वमिदं ततम्’[1]- ऐसा कहकर ‘तत्’ पद से और ‘अव्यक्तमूर्ति मेरे से ही यह संपूर्ण संसार व्याप्त है और संपूर्ण प्राणी मेरे में स्थित है’ ‘मया ततमिदं.......मत्स्थानि सर्वभूतानि’[2]- ऐसा कहकर ‘अस्मत्’ पद से भगवान् ने अपने में संपूर्ण प्राणियों को स्थित एवं अपने को ही संपूर्ण संसार में व्याप्त बताया है। ‘जो ज्ञेय तत्त्व है, उसका मैं वर्णन करूँगा, जिसको जानने से अमरता की प्राप्ति हो जाती है’ ‘ज्ञेयं यत्तप्रत्वक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्रुते’[3]- ऐसा कहकर ‘तत्’ पद से और ‘संपूर्ण वेदों के द्वारा जानने योग्य मैं ही हूँ’ ‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः’[4]- ऐसा कहकर ‘अस्मत्’ पद से भगवान् ने अपने को ज्ञेय तत्त्व के रूप में जानने के लिए कहा है। ‘ईश्वर संपूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित है’ ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’[5] -ऐसा कहकर ‘तत्’ पद से और ‘मैं ही सबके हृदय में अच्छी तरह से स्थित हूँ’ ‘सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः’ [6]- ऐसा कहकर ‘अस्मत्’ पद से भगवान् ने अपने को संपूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित बताया है। ‘जो मनुष्य अंतकाल में सर्वज्ञ, पुराण, अनुशासिता आदि विशेषणों से युक्त सगुण निराकार परमात्मा का चिंतन करते हुए शरीर छोड़ता है, वह उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है’ ‘कविं पुराणं......पुरुषमुपैति दिव्यम्’[7]- ऐसा कहकर ‘तत्’ पद से और ‘जो मनुष्य अंतकाल में मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह मेरे को ही प्राप्त होता है’ ‘अंतकाले च मामेव....मद्भावं याति’[8]- ऐसा कहकर ‘अस्मत्’ पद से भगवान् ने अंत समय में अपना स्मरण करने वाले को अपनी प्राप्ति होनी बतायी है। तात्पर्य है कि गीता में ‘तत्’ और ‘अस्मत्’ पद से एक ही परमात्मा का वर्णन हुआ है। ‘जिसको प्राप्त होने पर जीव लौटकर संसार में नहीं आते, वही मेरा परमधाम है’ ‘यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’,[9] ‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’[10]- ऐसा कहकर ‘तत्’ और ‘अस्मत्’- पदवाची परमात्मा की एकता बतायी गयी है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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