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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
80. गीता में अर्जुन की युक्तियाँ और उनका समाधान
अर्जुन कहते हैं- मैं जिनके लिए राज्य, भोग आदि चाहता हूँ, वे ही मरने के लिए सामने खड़े हैं,[1] तो भगवान् कहते हैं- तू संपूर्ण कर्मों को मेरे में अर्पण करके संताप (शोक) और ममता से रहित होकर युद्ध [2] जो संपूर्ण कामनाओं को और स्पृहा को छोड़ देता है तथा अहंता-ममतारहित हो जाता है, वह शांति को प्राप्त होता है।[3] अर्जुन कहते हैं- युद्ध में इन धृतराष्ट्र के संबंधियों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी?,[4] तो भगवान् कहते हैं- प्रसन्नता युद्ध करने अथवा न करने से नहीं होती, प्रत्युत रागद्वेष से रहित अपने वश में की हुई इंद्रियों के द्वारा व्यवहार करने से होती है।[5] अर्जुन कहते हैं- युद्ध में इन कुटुम्बियों को मारने से हमें पाप लगेगा,[6] तो भगवान् कहते हैं- जब तू इस स्वतः प्राप्त धर्ममय युद्ध को नहीं करेगा, तब तेरे को पाप लगेगा।[7] अर्जुन कहते हैं- युद्ध में स्वजनों को मारकर हम सुखी कैसे होंगे?[8] तो भगवान् कहते हैं- जिन क्षत्रियों को अनायास ही ऐसा धर्ममय युद्ध प्राप्त हो जाता है, वे ही सुखी होते हैं।[9] अर्जुन कहते हैं- हम कुल के नाश से होने वाले दोषों को जानते हैं, इसलिए हमें तो युद्ध से निवृत्त हो जाना चाहिए,[10] तो भगवान् कहते हैं- यह तेरी नपुंसकता है, कायरता है, हृदय की तुच्छ दुर्बलता है, इसे तू स्वीकार मत कर और अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए खड़ा हो जा।[11] अर्जुन कहते हैं- युद्ध करने से परिणाम में धर्म का नाश हो जाएगा,[12] तो भगवान् कहते हैं- युद्ध न करने से धर्म का नाश होगा।[13] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (1।32)
- ↑ (3।30)
- ↑ (2।21)
- ↑ (1।36)
- ↑ (2।64)
- ↑ (1।36)
- ↑ (2।33)
- ↑ (1।37)
- ↑ (2।32)
- ↑ (1।39)
- ↑ (2।3)
- ↑ (1।40)
- ↑ (2।33)
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