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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
62. गीता में अष्टांगयोग का वर्णन
5. प्रत्याहार- इंद्रियों को अपने-अपने विषयों से हटाना ‘प्रत्याहार’ है- ‘स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेंद्रियाणां प्रत्याहारः’[1]। गीता में ‘इंद्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः’,[2] ‘तानि सर्वाणि संयम्य’,[3] ‘श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निष जह्वति’[4] पदों से ‘प्रत्याहार’- का वर्णन हुआ है। 6. धारणा- परमात्मा में मन लगाने का नाम ‘धारणा’ है- ‘देशबंधश्चित्तस्य धारणा’[5]। गीता में ‘मनः संयम्य’,[6] ‘यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम्। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्’,[7] ‘मच्चित्ताः’,[8] ‘मय्येव मन आधत्स्व’, [9] ‘मच्चित्तः सततं भव’,[10] ‘मच्चित्तः’ [11] पदों से ‘धारणा’ का वर्णन हुआ है। 7. ध्यान- चित्त को जिसमें लगाया जाय, उसी में उसका एकाग्र हो जाना ‘ध्यान’ कहलाता है- तत्र प्रत्यैकतानताध्यानम्[12]। गीता में ‘तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा’, [13] ‘चेतसा नान्यगामिना’,[14] ‘मां ध्यायन्तः’,[15], ‘ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति’,[16] ध्यानयोगपरो नित्यम्,[17] आदि पदों से ‘ध्यान’ का वर्णन हुआ है। 8. समाधि- ध्यान करते-करते जब चित्त ध्येयाकार में परिणत हो जाता है, चित्त के अपने स्वरूप का अभाव सा हो जाता है, उस समय उस ध्यान का ही नाम ‘समाधि’ हो जाता है- ‘तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः’[18]। गीता में ‘आत्म-संयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञान दीपिते’[19] पदों से ‘समाधि’ का वर्णन हुआ है। उपर्युक्त ‘अष्टांगयोग’ के वर्णन में गीता ने सार बात यह बतायी है कि मनुष्य संसार से हटकर परमात्मा में लग जाय। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (पातंजल. 2।54)
- ↑ (2।58, 68)
- ↑ (2।61)
- ↑ (4।26)
- ↑ (पातंजल. 3।1)
- ↑ (6।14)
- ↑ (6।26)
- ↑ (10।9)
- ↑ (12।8)
- ↑ (18।57)
- ↑ (18।58)
- ↑ (पातंजल. 3।2)
- ↑ (6।12)
- ↑ (8।8)
- ↑ (12।6)
- ↑ (13।14)
- ↑ (18।52)
- ↑ (पातंजल. 3।3)
- ↑ (4।27)
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