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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
61. गीता में सत्, चित् और आनन्द
तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्व भी सच्चिदानन्द (सत्, चित् और आनन्द) है और संसार भी सच्चिदानंद है परंतु इन दोनों के सच्चिदानंद पने में अंतर है। परमात्मतत्त्व का सच्चिदानंदपना सबके लिए अनुभूत नहीं है। मनुष्य जब साधन करता है, सत्संग करता है, परमात्मा की तरफ चलता है, तब परमात्मा का सच्चिदानंदपना उसके अनुभव में आने लगता है। पारमार्थिक मार्ग में वह ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों उसमें विलक्षणता आती ही रहती है। परंतु संसार का जो सच्चिदांदनपना है, वह सबके अनुभवसिद्ध है। संसार की जो सत्ता (‘है’- पना) है, ज्ञान (समझ) है, सुख है, वे सभी उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं। वे पहले भी नहीं थे और पीछे नहीं रहेंगे तथा जिस समय उनका भान होता है, उस समय भी वे प्रतिक्षण नष्ट हो रहे हैं, अभाव में जा रहे हैं। अतः बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह उत्पन्न और नष्ट होने वाले सांसारिक सत्-चित्त आनंद में न फँसे। परमात्मा को ‘सत्’ कहने का तात्पर्य है कि वह परमात्मा असत् से विलक्षण है वहाँ असत् है ही नहीं। जैसे उत्पन्न होने वाली वस्तु को अंगलिनिर्देश करके बता सकते हैं; ऐसे उस परमात्मा को अंगलिनिर्देश करके नहीं बता सकते। उस परमात्मा को ‘चित्’ कहा जाता है, पर यह ‘चित्’ सांसारिक प्रकाशक अप्रकाश, ज्ञान-अज्ञान, चेतन-जड़ की तरह नहीं है। कारण कि सांसारिक प्रकाश अप्रकाश की अपेक्षा से हैं अर्थात् जहाँ नेत्र काम करते हैं, वह प्रकाश है और जहाँ नेत्र काम नहीं करते, वह अप्रकाश है। सांसारिक ज्ञान अज्ञान की अपेक्षा से है अर्थात् जहाँ बुद्धि काम करती है, वह ज्ञान है और जहाँ बुद्धि काम नहीं करती, वह अज्ञान है। सांसारिक चेतन जड़ की अपेक्षा से है। परंतु परमात्मा इस तरह अप्रकाश, अज्ञान और जड़ की अपेक्षा ‘चित्’ नहीं है; वहाँ अप्रकाश, अज्ञान और जड़ता का अत्यंत अभाव है। तात्पर्य है कि उस परमात्मा में अप्रकाश, अज्ञान और जड़ता है ही नहीं। संसार में एक सुख होता है और एक दुख होता है। एक शांति होती है और एक अशांति होती है। ये सभी द्वंद्व हैं। पारमार्थिक सुख (आनंद) में दुख-अशांति का अत्यंत अभाव है। वह सुख सांसारिक सुख शांति से सर्वथा अतीत है। तात्पर्य है कि पारमार्थिक सत्, चित् और आनंद- ये तीनों ही द्वन्द्वातीत हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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