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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
57. गीता में कर्तृत्व-भोक्तृत्व का निषेध
अतः भगवान् कहते हैं कि विचारकुशल मनुष्य जब गुणों के सिवाय अन्य को कर्ता नहीं देखता और अपने आपको गुणों से पर अनुभव करता है, तब यह मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।[1] प्राप्त क्यों हो जाता है? कारण कि यह स्वयं स्वतः ही गुणों से निर्लिप्त है।[2] तात्पर्य यह हुआ कि पुरुष ने जिस जड़ अंश के साथ तादात्म्य करके अपने को भोक्ता माना है, उसी जड़ अंश में भोगरूपी क्रिया भी है। अतः भोक्ता भी जड़-अंश ही हुआ भोगरूपी क्रिया भी जड़ अंश में ही हुई, भोग की सामार्थ्य भी जड़ अंश में ही रही और भोग्य पदार्थ- ये सब के सब प्रकृति में ही हैं।[3] भोग के समय पुरुष मे कोई विकार भी नहीं होता।[4] परंतु तादात्म्य के कारण पुरुष अपने में अहंकार का आरोप कर लेता है अर्थात् ‘मैं सुखी हूँ’ और ‘दुखी हूँ’- ऐसा मान लेता है और इसी कारण से अर्थात् अपने में जड़ अंश को मानने से भोक्ता का भोगों में आकर्षण होता है, अन्यथा स्वयं चेतन का भोगों में आकर्षण हो ही नहीं सकता। भगवान् ने गुणों को कर्ता कहा है, तो उस कर्ता में भोक्तृत्व भी साथ में रहता है क्योंकि भोग भी क्रियाजन्य होता है।[5] क्रिया के बिना भोग नहीं होता। इससे भी यही सिद्ध होता है कि स्वयं में कर्तृत्व और भोक्तृत्व- दोनों ही नहीं हैं। कर्तृत्व में ही भोक्तृत्व होता है अर्थात् जो कर्ता होता है, वही भोक्ता बनता है। कारण कि स्वयं किसी प्रयोजन को लेकर, फल की इच्छा को लेकर ही कर्म करने में प्रवृत्त होता है अर्थात् भोक्तृत्व भाव से ही यह कर्ता कहलाता है। अतः कर्तृत्व और भोक्तृत्व दो चीजें नहीं है, प्रत्युत दोनों एक ही हैं।[6] हाँ, यदि सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाय तो कर्तृत्व में स्थूलता है और भोक्तृत्व में सूक्ष्मता है, पर तात्विक दृष्टि से दोनों एक ही हैं क्योंकि दोनों ही प्रकृति के संबंध से होते हैं। अतः कर्तृत्व मिटने से भोक्तृत्व भी मिट जाता है और भोक्तृत्व मिटने से कर्तृत्व भी मिट जाता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (14।19)
- ↑ (13।31)
- ↑ (13।30)
- ↑ (13।31)
- ↑ (5।8-9)
- ↑ अपने में कर्तृत्व माने बिना भी क्रिया तो होती है, पर अपने को सुखी दुखी माने बिना भोक्तृत्व सिद्ध नहीं होता।
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