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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
48. गीता में समता
परमात्मा सम हैं। उनमें विषमता के लिए कोई अवकाश नहीं है। परंतु प्रकृति विषम है। अतः परमात्मा की ओर जो दृष्टि होती है, वह समदृष्टि होती है। तात्पर्य है कि सब जगह समरूप परमात्मा को देखना समदृष्टि है और प्रकृति तथा उसके कार्य (शरीर-संसार) को देखना विषम दृष्टि है। प्रकृति और उसके कार्य में समदृष्टि कभी हो ही नहीं सकती। अतः प्रकृति की ओर दृष्टि रखने वाले कभी समदर्शी नहीं हो सकते और परमात्मा की तरफ दृष्टि रखने वाले कभी विषम दृष्टि नहीं हो सकते है इसलिये गीता ने परमात्मा की तरफ दृष्टि रखने वालों की ‘समदर्शिनः’[1] ‘सर्वत्र समबुद्धयः’[2] आदि पदों से कहा है। परमात्मा के साथ स्वयं का नित्ययोग है और मन, बुद्धि आदि के साथ स्वयं का नित्य वियोग है।[3] परमात्मा के साथ नित्ययोग होते हुए भी जब तक स्वयं संसार के साथ संयोग मानता रहता है, तब तक उसको उस नित्ययोग की अनुभूति नहीं होती। परंतु जब नित्ययोग की अनुभूति हो जाती है अर्थात् परमात्मा के साथ योग हो जाता है, तब वह योग अर्थात् समता उसके मन, बुद्धि, अंतःकरण में भी आ जाती है।[4] फिर वह सुख-दुख आदि में सम हो जाता है।[5] फिर उसकी समता पुण्यात्मा-पापात्मा आदि व्यक्तियों में भी हो जाती है।[6] फिर वही समता व्यवहार में भी आ जाती है अर्थात् व्यवहार में उसके राग द्वेष नहीं होते।[7] फिर उसकी समता पदार्थों में भी हो जाती है अर्थात् पदार्थों में उसकी प्रियता-अप्रियता नहीं होती[8] तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्व को लेकर उसकी सब जगह समता हो जाती है अर्थात् वर्ण, आश्रम, परिस्थिति, साधन आदि को लेकर उसका व्यवहार (बर्ताव) तो यथायोग्य ही होता है, पर हृदय में राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि नहीं होते।[9] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (5।18)
- ↑ (12।4)
- ↑ (6।23)
- ↑ (5।19)
- ↑ (14।24-25)
- ↑ (6।9)
- ↑ (5।18)
- ↑ (6।8)
- ↑ इसे विस्तार से समझने के लिए गीता की ‘साधक-संजीवनी’ नामक हिंदी टीका में पाँचवें अध्याय के अठारहवें श्लोक की व्याख्या देखनी चाहिए।
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