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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
43. गीतोक्त योग के सब अधिकारी
ज्ञानयोग के अधिकारी
जैसे भक्ति के सभी अधिकारी हैं, ऐसे ही ज्ञान के भी सभी अधिकारी हैं। भगवान् ने गीता में बताया है कि जिस ज्ञान को मनुष्य श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु की सेवा करके, उनके अनुकूल बनकर जिज्ञासापूर्वक प्रश्न करके प्राप्त करता है और जिस ज्ञान को प्राप्त करके फिर कभी मोह हो ही नहीं सकता तथा जिस ज्ञान से साधक पहले संपूर्ण प्राणियों को अपने में और फिर परमात्मा में देखता है, वही ज्ञान (तीव्र जिज्ञासा होने पर) अत्यंत पापी को भी प्राप्त हो सकता है।[1] भगवान् कहते हैं कि जगत् के संपूर्ण पापियों से भी अधिक पापी अगर ज्ञान प्राप्त करना चाहता है तो वह भी ज्ञान को प्राप्त करके ज्ञानरूपी नौका के द्वारा संपूर्ण पाप समुद्र तो तर जाता है। जैसे प्रदीप्त अग्नि लकड़ियों के ढेर को जलाकर भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि संपूर्ण पापों को सर्वथा भस्म कर देती है।[2] जब पापी से पापी को भी ज्ञान हो सकता है, तब जो श्रद्धावान् है, अपने साधन में तत्पर है, और जितेंद्रिय है, उसको ज्ञान हो जाय- इसमें तो कहना ही क्या है![3] कई तो ध्यानयोग के द्वारा, कई सांख्ययोग के द्वारा और कई कर्मयोग के द्वारा अपने आप में उस परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं।[4] परंतु जो इन साधनों को नहीं जानते, वे मनुष्य केवल तत्त्वज्ञ महापुरुषों से सुनकर, उनकी आज्ञा के अनुसारर चलकर ही ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।[5] तात्पर्य है कि मनुष्य चाहे श्रद्धावान् साधक हो, चाहे पापी से पापी हो, चाहे अनजान से अनजान हो, अगर वह ज्ञान चाहता है तो उसे ज्ञान हो सकता है। ’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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