विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
42. गीता का योग
तीनों योगों से निर्वाण पद की प्राप्ति
सब साधकों का प्रापणीय तत्त्व एक ही है। केवल साधकों की श्रद्धा, विश्वास, योग्यता, स्वभाव, रुचि आदि भिन्न-भिन्न होने से उनकी उपासनाओं में, साधन-पद्धतियों में भिन्नता होती है। जैसे मनुष्यों में भाषाभेद, वेशभेद, सम्प्रदायभेद आदि कई तरह के भेद होते हैं, पर सुख दुख का अनुभव सबको समान ही होता है अर्थात् अनुकूलता के आने पर सुखी होने में और प्रतिकूलता के आने पर दुखी होने में सब समान ही होते हैं, ऐसे ही संसार से विमुख होकर परमात्मा के सम्मुख होने के साधन अलग-अलग हैं, पर परमात्मा की प्राप्ति में सब एक हो जाते हैं अर्थात् परमात्मा, सुख-शांति सबको एक समान ही प्राप्त होते हैं। भगवान् ने गीता में कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग- इन तीनों योगों से निर्वाण-पद की प्राप्ति बतायी है; जैसे- 1. कर्मयोग - जो मनुष्य कामना, स्पृहा, ममता, अहंता से रहित होता है, उसको शांति की प्राप्ति होती है। यह ब्राह्मी स्थिति कहलाती है। इस ब्राह्मी स्थिति में यदि कोई अंतकाल में स्थित हो जाए तो भी उसे निर्वाण ब्रह्मा की प्राप्ति हो जाती है।[1] 2. ज्ञानयोग - जिसका बाह्य पदार्थों का संबंधजन्य सुख मिट गया है, जिसको केवल परमात्म तत्त्व में ही सुख मिलता है, जो परमात्म तत्त्व में ही रमण करता है, ऐसा ब्रह्मभूत साधक निर्वाण ब्रह्मा को प्राप्त होता है। जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिनकी द्विधा मिट गयी है और जो संपूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं, वे निर्माण ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। जो काम-क्रोध से रहित हो चुके हैं, जिनका मन अपने अधीन है और जो तत्त्व को जान गये हैं- ऐसे साधकों को जीते जी और मरने के बाद निर्वाण ब्रह्म प्राप्त है।[2] 3. भक्तियोग - शांत अंतःकरणवाला, भयरहित और ब्रह्मचरिव्रत में स्थित साधक मन का संयमन करके चित्त को मुझमें लगाकर मेरे परायण हो जाए तो उसको मेरे में रहने वाली निर्वाण परमा शांति प्राप्त हो जाती है।[3] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज