विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
37. गीता में विविध आज्ञाएँ
गीता में भगवान् ने अर्जुन को कई आज्ञाएँ दी हैं जैसे- अर्जुन युद्ध नहीं करन चाहते थे अतः भगवान् ने ‘उत्तिष्ठ’,[1] ‘युद्धाय युज्यस्व’,[2] ‘युध्यस्व’,[3] और ‘युध्य’[4] पदों से अर्जुन को युद्ध करने की आज्ञा दी। अर्जुन आज्ञापालक थे ही। अर्जुन को जहाँ भगवान् की बात पसंद नहीं आती, वहाँ वे कह देते हैं कि ‘भगवान्! आप मेरे को घोर कर्म में क्यों लगाते हैं?’[5] इससे सिद्ध होता है कि भगवान् के कहने पर अर्जुन अपने कल्याण के लिए युद्ध जैसे घोर कर्म में भी प्रवृत्त हो सकते हैं अर्थात् भगवान् आज्ञा देंगे तो वे उसे टालेंगे नहीं, प्रत्युत वैसा ही करेंगे। भगवान् ने अर्जुन को कर्मयोग के विषय में ये आज्ञाएं दी हैं- ‘विद्धि’[6], ‘मा कर्मफलहेतुर्भूः’,[7] ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’,[8] ‘योगाय युज्यस्व’,[9] ‘नियतं कुरु कर्म’,[10] ‘समाचर’,[11] ‘कुरु कर्मैव’[12] आदि-आदि। ज्ञानयोग के विषय में ये आज्ञायें दी हैं- ‘विद्धि’[13]- ‘शृणु’[14] आदि-आदि। भक्तियोग के विषय में ये आज्ञायें दी हैं- ‘विद्धि’,[15] ‘शृणु’,[16] ‘मामनुस्मर’,[17] ‘पश्य मे योगमैश्वरम्’,[18] ‘उपधारय’[19], ‘कुरुञ्च,’[20] ‘प्रतिजानीहि’,[21] ‘भजस्व माम्’,[22] ‘निवेशय’,[23] ‘इच्छ’,[24] ‘मा शुचः’[25] आदि-आदि। समता में स्थित होने के लिए ये आज्ञायें दी हैं- ‘तस्माद्योगी भवार्जुन’,[26] ‘योगयुक्त भवार्जुन’[27]। इसके सिवाय अन्य विषयों में भी भगवान् ने कई आज्ञाएं दी हैं जैसे- ‘कुरुन् पश्य’,[28] ‘क्लैब्यं मा स्म गमः’,[29] 'तितिक्षस्व',[30] ‘यशो लभस्व’[31] आदि-आदि। उपर्युक्त आज्ञाओं के विषय में कुछ बातें समझने की हैं- जहाँ अर्जुन प्रश्न करते हैं, वहाँ भगवान् उस प्रश्न का उत्तर देते हुए उसके अनुसार ही आज्ञा देते हैं परंतु जहाँ भगवान् अपनी ओर से आज्ञा देते हैं, वहाँ अर्जुन के लिए भक्तियोग की ही आज्ञा देते हैं। भगवान् जहाँ आज्ञा देते हैं, वहाँ अपने में लगने की बात भी कह देते हैं और संसार के राग को हटाने की बात भी कह देते हैं। जहाँ भगवान् केवल संसार का राग हटाने की आज्ञा देते हैं, वहाँ भी भगवान् का उद्देश्य सांसारिक राग को हटाकर अपने में लगाने का ही रहता है। दूसरी दृष्टि से देखा जाय तो भगवान जहाँ भक्ति की (अपने में लगने की) आज्ञा देते हैं, वहाँ तो भक्ति है ही, पर जहाँ कर्मयोग की (सांसारिक राग को हटाने की) आज्ञा देते हैं, वहाँ भी भगवान् की आज्ञा होने से भक्ति ही है। भगवान् जहाँ ज्ञान की आज्ञा देते हैं, वहाँ भी संसार से राग हटाने का और अपने में लगाने का भाव रहता ही है। यही भाव गीता में कहीं आज्ञारूप से, कहीं विवेकरूप से और कहीं भावरूप से देखने को मिलता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2।37; 4।42)
- ↑ (2।38)
- ↑ (3।30, 11।34)
- ↑ (8।7)
- ↑ (3।1)
- ↑ (3।37, 4।13, 32, 6।2)
- ↑ (2।47)
- ↑ (2।48)
- ↑ (2।50)
- ↑ (3।8)
- ↑ (3।9, 19)
- ↑ (4।15)
- ↑ (2।17, 4।34, 13।2, 19, 26)
- ↑ (13।3)
- ↑ (7।5, 10, 12, 10।24, 27)
- ↑ (7।1, 10।1)
- ↑ (8।7)
- ↑ (9।5, 11।8)
- ↑ (7।6, 9।6)
- ↑ (9।27)
- ↑ (9।31)
- ↑ (9।33)
- ↑ (12।8)
- ↑ (12।9)
- ↑ (16।5, 18।66)
- ↑ (6।46)
- ↑ (8।27)
- ↑ (1।25)
- ↑ (2।3)
- ↑ (2।14)
- ↑ (11।33)
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