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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
35. गीता में विविध विद्याएँ
5. भोजन करने की विद्या- भोजन करने के बाद पेट की याद नहीं आनी चाहिए। पेट दो कारणों से याद आता है- अधिक खाने पर अथवा कम खाने पर। अतः भोजन न अधिक हो और न कम हो, प्रत्युत नियमित हो ।[1] भोजन के पदार्थ भी सात्त्विक हों।[2] भोजन के पदार्थ भी सात्त्विक हों।[3] चौथे अध्याय के चौबीसवें श्लोक को शिष्टजन भोजन के समय बोलते हैं, जिससे भोजन रूप कर्म भी यज्ञ बन जाय। 6. विषय सेवन की विद्या- रागपूर्वक विषयों का चिंतन करने मात्र से मनुष्य का पतन हो जाता है।[4] परंतु अपने वशीभूत की हुई राग द्वेषरहित इंद्रियों से विषयों का सेवन करने से प्रसन्नता की प्राप्ति होती है अर्थात् अंतःकरण स्वच्छ, निर्मल हो जाता है और संपूर्ण दुःखों का नाश हो जाता है। स्वच्छ अंतःकरण वाले पुरुष की बुद्धि बहुत जल्दी परमात्मा में स्थिर हो जाती है।[5] 7. भगवान् के अर्पण करने की विद्या- अर्पण के दो विभाग हैं- पदार्थ अर्पण करना और क्रिया अर्पण करना। जो मनुष्य श्रद्धा प्रेमपूर्वक पत्र, पुष्प, फल, जल आदि पदार्थ भगवान् के अर्पण करता है, उसके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये हुए उस उपहार- (भेंट) को भगवान् खा लेते हैं।[6] अगर किसी के पास भगवान् को अर्पण करने के लिए पत्र, पुष्प आदि भी न हों तो वह जो कुछ करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देना चाहता है और जो कुछ तप करता है, उन सबको भगवान् के अर्पण कर दे। ऐसा करने से वह संपर्ण शुभाशुभ कर्मों से, बंधनों से मुक्त हो जाता है।[7] 8. दान देने की विद्या- दान तो प्रायः सभी लोग देते ही हैं पर विधिपूर्वक नहीं देते। भगवान् दान देने की विद्या बताते हैं कि देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर ‘देना कर्तव्य है’- ऐसा समझकर प्रत्युपकार की भावना का त्याग करके दान देना चाहिए। ऐसा दान सात्त्विक होता है और यही दान बंधन से मुक्त करने वाला होता है।[8] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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