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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
32. गीता में द्विविधा इच्छा
एक आवश्यकता होती है और एक इच्छा होती हैं। आवश्यकता सत् की और इच्छा असत् की होती है। मनुष्यों में केवल सत्-(परमात्मा) की ही इच्छा होनी चाहिये, जो आवश्यकता है। मनुष्य का जन्म असत् की इच्छा करने के लिये हुआ ही नहीं। कारण कि असत् अपना नहीं है और कभी साथ में नहीं रहता परंतु स्त् अपना है और सदा ही साथ में रहता है, कभी अलग नहीं हो सकता। ज्ञातव्यसांसारिक वस्तु आदि की एक 'आवश्यकता' होती है और एक 'इच्छा' होती है। आवश्यकता की तो पूर्ति होती है, पर इच्छा की कभी पूर्ति नहीं होती। जैसे भूख लगने पर एक उदर पूर्ति की इच्छा होती है और एक स्वाद की इच्छा होती है। उदर पूर्ति की इच्छा शरीर की आवश्यकता (भूख) है, जो भोजन करके मिटायी जा सकती है परंतु स्वाद की इच्छा भोजन करके नहीं मिटायी जा सकती। तात्पर्य है कि शरीर की आवश्यकता (भूख) की पूर्ति तो की जा सकती है, पर उसका विचारपूर्वक त्याग नहीं किया जा सकता। परंतु स्वाद की इच्छा की पूर्ति नहीं की जा सकती, उसका तो त्याग ही किया जा सकता है। उदर पूर्ति की इच्छा (भूख) एक ही होती है और उसकी पूर्ति का प्रबंध भगवान् की तरफ से प्रारब्ध के अनुसार नहीं है। कारण कि उदरपूर्ति की इच्छा तो शरीर की स्वाभाविक आवश्यकता है, पर स्वाद की इच्छा हमारी अपनी बनायी हुई है, स्वाभाविक नहीं है अतः इसका त्याग करने की जिम्मेवारी हमारे पर ही है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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