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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
31. गीता में द्विध सत्ता का वर्णन
ज्ञातव्य
मनुष्य केवल अविकारी सत्ता- (परमात्मा) को ही प्राप्त कर सकता है, विकारी सत्ता- (सांसारिक पदार्थों) को प्राप्त कर ही नहीं सकता क्योंकि मनुष्य विकारी सत्ता को, सांसारिक पदार्थों को कितना ही इकट्ठा कर ले, पर वे उसके साथ सदा रह ही नहीं सकते। चाहे तो मनुष्य के रहते हुए वे पदार्थ चले जाएंगे, चाहे उनके रहते हुए मनुष्य चला जाएगा, मर जाएगा। मनुष्य सांसारिक पदार्थों को अपने साथ रख नहीं सकता और स्वयं उनके साथ रह नहीं सकता, तो फिर उनकी प्राप्ति अप्राप्ति ही हुई। अविकारी सत्ता को विकारी सत्ता से आज तक कुछ भी नहीं मिला, मिलना संभव ही नहीं है। तात्पर्य है कि शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि से स्वयं को कुछ मिला नहीं, मिलता नहीं, मिलेगा नहीं और मिल सकता भी नहीं। विकारी सत्ता तो अभावरूप है- ‘नासतो विद्यते भावः’[1] अतः विकारी सत्ता (संसार) प्राप्त दीखते हुए भी अप्राप्त ही है और अविकारी सत्ता (परमात्मा) अप्राप्त दीखते हुए भी प्राप्त ही है। अविकारी सत्ता को प्राप्त करने में मनुष्य समर्थ है और मनुष्य को उसकी प्राप्ति की सब सामग्री मिली हुई है।
उत्तर - साधक अपने विवेक का ज्यों-ज्यों आदर करेगा, त्यों-त्यों यह वहम मिटता चला जाएगा। अंत में यह वहम सर्वथा मिट जाएगा और विवेक अविकारी सत्ता की प्राप्ति कराकर स्वयं शांत हो जाएगा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (2।16)
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