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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
27. गीता में श्रद्धा
दैवी श्रद्धा
2. महापुरुष और उनके वचनों में श्रद्धा- महापुरुष जो-जो आचरण करते हैं, दूसरे मनुष्य भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं और महापुरुष अपनी वाणी से जिसका विधान कर देते हैं, दूसरे लोग उसका अनुवर्तन करते हैं।[1] जो लोग कर्मयोग, साख्यलोग, ध्यानयोग आदि साधनों को नहीं जानते, प्रत्युत केवल महापुरुषों के वचनानुसार चलते हैं, वे भी मृत्यु को तर जाते हैं।[2] 3. ग्रंथों में और शास्त्रीय शुभकर्मों में श्रद्धा- जो मनुष्य दोषदृष्टि रहित होकर श्रद्धापूर्वक इस गीता-ग्रंथ को सुन भी लेगा, वह भी संपूर्ण पापों से मुक्त होकर पुण्यकर्म करने वालों के ऊँचे लोकों को प्राप्त हो जाएगा। [3] कर्तव्य और अकर्तव्य के विषय में शास्त्र ही प्रमाण है अतः शास्त्र को सामने रखकर ही कर्म करने चाहिए।[4] जो शास्त्र विधि को अर्थात् कौन सा कार्य किस विधि से करना चाहिए- इस बात को नहीं जानते, पर शास्त्रीय शुभकर्मों में जिनकी श्रद्धा है और जो श्रद्धापूर्वक यजन-पूजन भी करते हैं,[5] वे सात्त्विक (दैवी संपत्ति वाले) मनुष्य होते हैं- ‘यजन्ते सात्त्विका देवान्’[6] 4. सात्त्विक तप में श्रद्धा- परम श्रद्धा से युक्त फलेच्छारहित मनुष्यों के द्वारा शरीर, वाणी और मन से जो तप किया जाता है, उसको सात्त्विक कहते हैं।[7] यह सब ‘दैवी’ श्रद्धा का विभाग है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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