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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
2. गीता संबंधी प्रश्नोत्तर
उत्तर- ऐसी बात नहीं है। उस समय युद्ध का प्रसंग था और अर्जुन युद्ध को छोड़कर भिक्षा मांगना श्रेष्ठ समझते थे; अतः भगवान् ने कहा कि ऐसा स्वतः प्राप्त धर्मयुद्ध शूरवीर क्षत्रिय के लिए कल्याण का बहुत बढ़िया साधन है। अगर ऐसे मौके पर शूरवीर क्षत्रिय युद्ध नहीं करता तो उसकी अपकीर्ति होती है; वह आदरणीय पूजनीय मनुष्यों की दृष्टि में लघुता को प्राप्त हो जाता है; वैरी लोग उसको न कहने योग्य वचन कहने लग जाते हैं।[2] तात्पर्य है कि अर्जुन के सामने युद्ध का प्रसंग था, इसीलिए भगवान् ने युद्ध को श्रेष्ठ साधन बताया। युद्ध के सिवाय दूसरे साधन से क्षत्रिय अपना कल्याण नहीं कर सकता- यह बात नहीं है; क्योंकि पहले भी बहुत से राजा लोग चौथे आश्रम में वन में जाकर साधन-भजन करते थे और उनका कल्याण भी हुआ है।
उत्तर- भगवान् ने ये दोनों बातें कर्मयोग और ज्ञानयोग की दृष्टि से अलग-अलग कही हैं। कर्मयोग में निष्काम भाव से कर्मों को करने से ही समता का पता लगता है; क्योंकि मनुष्य कर्म करेगा ही नहीं तो ‘सिद्धि-असिद्धि में मैं सम रहा या नहीं’- इसका पता कैसे लगेगा? अतः भगवान् कहते हैं कि कर्मों का आरंभ न करने से सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती। ज्ञानयोग में विवेक से समता की प्राप्ति होती है, केवल कर्मों का त्याग करने से नहीं। अतः भगवान् कहते हैं कि कर्मों का त्याग करने मात्र से सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती। तात्पर्य है कि कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनों ही मार्गों में कर्म करना बाधक नहीं है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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