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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
22. गीता में विभूति वर्णन
विभूति-वर्णन का उद्देश्य
साधक को चाहिए कि गीता में जिन विभूतियों का वर्णन हुआ है, वे विभूतियाँ किन कारणों से मुख्य है? इनमें क्या-क्या विलक्षणताएँ हैं? इनके विषय में किस-किस ग्रंथ में क्या-क्या लिखा है? इस तरफ वृत्ति न लगाकर ऐसा विचार करे कि इनका मूल क्या है? ये कहाँ से प्रकट हुई हैं? इस तरह अपनी वृत्तियों का प्रवाह इन विभूतियों की तरफ न होकर इनके मूल भगवान् की तरफ ही होना चाहिए। मनुष्य की वृत्तियों का प्रवाह अपनी तरफ करने के लिए ही भगवान् ने विभूतियों का वर्णन किया है।[1] क्योंकि अर्जुन की यही जिज्ञासा थी।[2] अतः ये विभूतियाँ भगवान् का चिंतन करने के लिए ही हैं। इन विभूतियों में विलक्षणता दीखे अथवा न दीखे, इनको जानें अथवा न जानें, फिर भी इनमें भगवान् का चिंतन होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि भगवान् का उद्देश्य विभूतियों का वर्णन करने का नहीं है, प्रत्युत अपना चिंतन कराने का है। चिंतन कराने का उद्देश्य है- साधक मेरे को तत्त्व से जान जाए और उसकी मेरे में दृढ़ भक्ति हो जाय-
विभूतियों की दिव्यतादसवें अध्याय में अर्जुन ने सोलहवें श्लोक में और भगवान् ने उन्नीसवें तथा चालीसवें श्लोक में अपनी विभूतियों को ‘दिव्य’ कहा है। इसका कारण यह है कि भगवान् दिव्यातिदिव्य हैं अतः जितनी भी विभूतियाँ हैं, वे सभी तत्त्व से दिव्य हैं। परंतु साधक के सामने उन विभूतियों की दिव्यता तभी प्रकट होती है, जब वह भोगबुद्धि का सर्वथा त्याग करके उन विभूतियों में केवल भगवान् का ही चिंतन करता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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