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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
19. गीता में चार आश्रम
गीता में वर्णों का स्पष्ट रूप से और आश्रमों का संकेत रूप से वर्णन करने कारण यह है कि उस समय प्राप्त कर्तव्य कर्मरूप युद्ध का प्रसंग था, आश्रमों का नहीं। अतः भगवान् ने गीता में वर्णगत कर्तव्य-कर्म का ज्यादा वर्णन किया है। उसमें भी अगर देखा जाय तो क्षत्रिय के कर्तव्य कर्म का जितना वर्णन है, उतना ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र के कर्तव्य कर्म का वर्णन नहीं है। आश्रमों का स्पष्टरूप से वर्णन न करने का दूसरा कारण यह है कि अन्य शास्त्रों में जहाँ आश्रमों का वर्णन हुआ है, वहाँ क्रमशः आश्रम बदलने की बात कही गयी है। आश्रम बदलने की बात भी मनुष्यों के कल्याण के लिए ही है। परंतु गीता के अनुसार अपना कल्याण करने के लिए आश्रम बदलने की जरूरत नहीं है, प्रत्युत जो जिस परिस्थिति में, जिस वर्ण, आश्रम आदि में स्थित है, उसी में रहते हुए वह अपने कर्तव्य का पालन करके अपना कल्याण कर सकता है। इतना ही नहीं, युद्ध जैसे घोर कर्म में लगा हुआ मनुष्य भी अपना कल्याण कर सकता है। तात्पर्य है कि आश्रमों के भेद से जीव के कल्याण में भेद नहीं होता। वर्णों का भेद भी कर्तव्य कर्म की दृष्टि से ही है अर्थात् जो भी कर्तव्य कर्म किया जाता है, वह वर्णन की दृष्टि से किया जाता है। वर्णों का वर्णन करने से चारों आश्रमों का वर्णन भी उसके अंतर्गत आ जाता है। इस दृष्टि से भी स्वतंत्र रूप से आश्रमों का वर्णन करने की आवश्यकता नहीं होती। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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