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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
16. गीता और गुरु तत्त्व
अगर किसी को असली गुरु मिल भी जाए, तो भी वह स्वयं उनको गुरु, महात्मा मानेगा, स्वयं उन पर श्रद्धा विश्वास करेगा, तभी उससे लाभ होगा। अगर वह स्वयं श्रद्धा विश्वास न करे तो साक्षात् भगवान् के मिलने पर भी उसका कल्याण नहीं होगा। दुर्योधन को भगवान् ने उपदेश दिया और पाण्डवों से संधि करने के लिए बहुत समझाया, फिर भी उस पर कोई असर नहीं पड़ा। उसके माने बिना भगवान् भी कुछ नहीं कर सके। तात्पर्य है कि खुद के मानने, स्वीकार करने से ही कल्याण होता है। अतः गीता अपने आपसे ही अपने आपका उद्धार करने की प्रेरणा करती है- ‘उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानम्’ [1] ज्ञानमार्ग में तो गीता ने आचार्य आदि की उपासना बतायी है, पर कर्मयोग और भक्तिमार्ग में गुरु आदि की आवश्यकता नहीं बतायी। कारण कि जब किसी घटना, परिस्थिति आदि से ऐसी भावना जाग्रत हो जाती है कि ‘स्वार्थभाव से कर्म करने पर अभाव की पूर्ति नहीं होती स्वार्थभाव रखना पशुता है, मानवता नहीं है’, तब मनुष्य स्वार्थभाव का, कामना का त्याग करके सेवा परायण हो जाता है। सेवा परायण होने से उस कर्मयोगी को अपने-आप तत्त्वज्ञान हो जाता है- ‘तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति’[2] कोई एक विलक्षण शक्ति है, जिससे संपूर्ण संसार का संचालन हो रहा है। उस शक्ति पर जब मनुष्य का विश्वास हो जाता है, तब वह भगवान् की तरफ चल पड़ता है। भगवान् में लगे हुए ऐसे भक्त के अज्ञान-अंधकार का नाश भगवान् स्वयं कर देते हैं;[3] और भगवान् स्वयं उसका मृत्यु संसार सागर से उद्धार करने वाले बन जाते हैं।[4] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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