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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
11. गीता में भगवान् की न्यायकारिता और दयालुता
शंका- श्रुति में आता है कि ईश्वर जिसको ऊर्ध्वगति में ले जाना चाहता है; उससे शुभ कर्म कराता है और जिसको अधोगति में ले जाना चाहता है, उससे अशुभ कर्म कराता है- ‘एष ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते एष ह्येवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते’।[1] अतः इसमें भगवान् की न्यायकारिता और दयालुता क्या हुई? केवल पक्षपात, विषमता ही हुई! समाधान- इस श्रुति का तात्पर्य शुभ-कर्म करवाकर ऊर्ध्वगति और अशुभ कर्म करवाकर अधोगति करने में नहीं है, प्रत्युता प्रारब्ध के अनुसार कर्मफल भुगताकर उसको शुद्ध करने में है और अर्थात् जीव अपने शुभ-अशुभ कर्मों का फल जिस तरह से भोग सके, उसी तरह से परिस्थिति और बुद्धि बना देते हैं। जैसे, शुभ कर्मों के अनुसार किसी व्यापारी का मुनाफा होने वाला है तो उस समय भगवान् वैसी ही परिस्थिति और बुद्धि बना देते हैं, जिससे वह सस्ते दामों में चीजें खरीदेगा और मँहगे दामों में बेचेगा अतः उसको खरीद और बिक्री- दोनों में मुनाफा ही मुनाफा होगा। ऐसे अशुभ कर्मों के अनुसार किसी व्यापारी को घाटा लगने वाला है तो उस समय भगवान् वैसी ही परिस्थिति और बुद्धि बना देते हैं, जिससे वह मँहगे दामों में चीजें खरीदेगा और भाव गिरने से सस्ते दामों चीजें खरीदेगा और मँहगे दामों में बेचेगा अतः उसको खरीद और बिक्री- दोनों में मुनाफा ही मुनाफा होगा। ऐसे ही अशुभ कर्मों के अनुसार किसी व्यापारी को घाटा लगने वाला है तो उस समय भगवान् वैसी ही परिस्थिति और बुद्धि बना देते हैं, जिससे वह मँहगे दामों में चीजें खरीदेगा और भाव गिरने से सस्ते दामों में बेचागा अतः उसको खरीद और बिक्री- दोनों में घाटा ही घाटा लगेगा। इस तरह कर्मों के अनुसार मुनाफा और घाटा होना तो भगवान् की न्यायकारिता है और जिससे मुनाफा और घाटा हो सके, वैसी परिस्थिति और बुद्धि बना देना, जिससे शुभ-अशुभ कर्मबंधन कट जाय- यह भगवान् की दयालुता है। अगर श्रुति का अर्थ शुभ-अशुभ कर्म करवाकर मनुष्य की ऊर्ध्व अधोगति करने में ही लिया जाए तो भगवान् न्यायकारी और दयालु हैं- यह बात सिद्ध नहीं होगी। भगवान् संपूर्ण प्राणियों में सम हैं, उनका किसी भी प्राणी के साथ राग-द्वेष नहीं है- यह बात भी सिद्ध नहीं होगी। ऐसा काम करो और ऐसा काम मत करो- शास्त्रों का यह विधि-निषेध भी मनुष्य के लिए लागू नहीं होगा। गुरु की शिक्षा, संत महापुरुषों के उपदेश आदि सब व्यर्त हो जाएंगे। जिससे मनुष्य कर्तव्य अकर्तव्य का विचार करता है, वह विवेक व्यर्थ हो जाएगा। मनुष्य जन्म की विशेषता, स्वतंत्रता भी खत्म हो जाएगी और मनुष्य पशु पक्षियों की तरह ही हो जाएगा अर्थात् वह अपनी तरफ से कोई नया काम नहीं कर सकेगा, अपनी उन्नति, उद्धार भी नहीं कर सकेगा! |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (कौषीतकि. 3।8)
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