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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
9. गीता में आहारी का वर्णन
ज्ञातव्य
कुपथ्य का त्याग और पथ्य का सेवन करना तथा संयम से रहना- ये तीनों बातें दवाइयों से भी बढ़कर रोग दूर करने वाली हैं। रोगी के साथ खाने-पीने से, रोगी के पात्र में भोजन करने से, रोगी के आसन पर बैठने से, रोगी के वस्त्र आदि को काम में लेने आदि से ऐसे संकर (मिश्रित) रोग हो जाते हैं, जिनकी पहचान करना बड़ा कठिन हो जाते हैं। जब रोग की पहचान ही नहीं होगी, तो फिर उस पर दवा कैसे काम करेगी? युग के प्रभाव से जड़ी बूटियों की शक्ति क्षीण हो गयी है। कई दिव्य जड़ी-बूटियाँ लुप्त हो गयी हैं। दवाइयाँ बनाने वाले ठीक ढंग से दवाइयाँ नहीं बनाते और पैसों के लोभ में आकर जिस दवाई में जो चीज मिलानी चाहिए, उसे न मिलाकर दूसरी ही चीज मिला देते हैं। अतः उसक दवाई का वैसा गुण नहीं होता। देहात में रहने वाले मनुष्य खेती का, परिश्रम का काम करते हैं तथा माताएँ-बहनें घर में चक्की चलाती हैं, परिश्रम का काम करती हैं, और उनको अन्न, जल हवा आदि भी शुद्ध मिलते हैं; अतः उनको कुपथ्यजन्य रोग नहीं होते। परंतु जो शहर में रहने वाले हैं, वे शारीरिक परिश्रम भी नहीं करते और उनको शुद्ध अन्न, जल, हवा आदि भी नहीं मिलते है अतः उनको कुपथ्यजन्य रोग होते हैं। हाँ, प्रारब्धजन्य रोग तो सबको ही होते हैं, चाहे व देहाती हों, चाहे शहरी। मनुष्य को शास्त्र की आचा के अनुसार शुद्ध दवाइयों का सेवन करना चाहिए। अगर कोई साधु, संन्यासी, गृहस्थ रोगी होने पर भी दवाई न ले तो इससे भी रोग दूर हो जाता है क्योंकि दवाई न लेना भी एक तप है, जिससे रोग दूर होते हैं। जो रोगों के कारण दुखी, अप्रसन्न रहता है, उस पर रोग ज्यादा असर करते हैं। परंतु जो भजन स्मरण करता है, संयम से रहता है, प्रसन्न रहता है, उस पर रोग ज्यादा असर नहीं करते। चित्त की प्रसन्नता से उसके रोग नष्ट हो जाते हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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