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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
1. गीता के प्रत्येक अध्याय का तात्पर्य
पंद्रहवाँ अध्यायइस संसार का मूल आधार और इस संसार में अत्यंत श्रेष्ठ परम पुरुष एक परमात्मा ही है- इसको दृढ़तापूर्वक मान लेने से मनुष्य सर्ववित् हो जाता है, कृतकृत्य हो जाता है। जिससे यह संसार अनादिकाल से चला आ रहा है और जिसको प्राप्त होने पर यह जीव फिर लौटकर संसार में नहीं आता, उस परमात्मा की खोज करनी चाहिए। ज्ञान-नेत्र वाले साधक अपने-आप में उस परमात्मा का अनुभव कर लेते हैं। वह परमात्मा ही सूर्य, चंद्रमा और अग्नि में तेजरूप से रहकर संसार में प्रकाश करता है। वही पृथ्वी में प्रवेश करके पृथ्वी को धारण करता है। वही रसमय चंद्रमा होकर पेड़, पौधे, लता आदि को पुष्ट करता है। वही जठराग्नि बनकर प्राणियों के द्वारा खाये गये अन्न को पचाता है। वही सबके हृदय में रहने वाला, वेदों को बनाने वाला, वेदों को जानने वाला और वेदों के द्वारा जानने योग्य है। वह संपूर्ण संसार का पालन-पोषण करता है। वह नाशवान् संसार से अतीत और अविनाशी जीवात्मा से उत्तम है। वही लोक में और वेदों में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध है। उसको सर्वश्रेष्ठ मानकर अनन्यभाव से उसका भजन करना चाहिए। सोलहवाँ अध्यायदुर्गुण दुराचारों से ही मनुष्य चौरासी लाख योनियों एवं नरकों में जाता है। अतः मनुष्य को सद्गुण- सदाचारों को धारण करके संसार के बंधन से, जन्म-मरण के चक्कर में रहित हो जाना चाहिए। जो दंभ, दर्प, अभिमान, काम, क्रोध, लोभ आदि आसुरी संपत्ति के गुणों का त्याग करके अभय, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, दया, यज्ञ, दान, तप आदि दैवी-संपत्ति के गुणों को धारण करते हैं, वे संसार के बंधन से रहित हो जाते हैं। परंतु जो केवल दुर्गुण-दुराचारों का, काम, क्रोध, लोभ, चिंता, अहंकार आदि का आश्रय रखते हैं, उनमें ही रचे-पचे रहते हैं, ऐसे वे आसुरी-संपदा वाले मनुष्य चौरासी लाख योनियों एवं नरकों में जाते हैं। |
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