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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
9. गीता में आहारी का वर्णन
ज्ञातव्य
आयुर्वेद में हिंसा की सीमा नहीं होती; क्योंकि उसमें स्थूल शरीर को ठीक रखने की मुख्यता है। अतः उसमें परलोक के बिगड़ने की परवाह नहीं होती। धर्मशास्त्र में सीमित हिंसा होती है। जिससे परलोक बिगड़ जाए, ऐसी हिंसा नहीं होती। परंतु धर्मशास्त्र में मनुष्य के कल्याण- (मोक्ष) की परवाह नहीं होती। तात्पर्य है कि आर्युवेद और धर्मशास्त्र- दोनों ही प्रकृति के राज्य में हैं। जब तक अंतःकरण में नाशवान् पदार्थों का महत्त्व रहता है, तब तक मनुष्य पाप से, हिंसा से बच ही नहीं सकता। वह अपनी भी हिंसा (पतन) करता है और दूसरों की भी। परंतु जिसमें सकामभाव नहीं है, उसके द्वारा हिंसा नहीं होती। अगर उसके द्वारा हिंसा हो भी जाय, तो भी उसको पाप नहीं लगता; क्योंकि पाप कामना (राग) में ही है, क्रिया में नहीं।
उत्तर- अभक्ष्य- भक्षण करने से शरीर बच जाय, मौत टल जाये- यह कोई नियम नहीं है। अगर आयु शेष होगी तो शरीर बच जायगा और आयु शेष नही होगी तो शरीर नही बचेगा, क्योंकि शरीर का बठना अथवा बचना प्रारब्ध के अधीन है, वर्तमान के कर्मो के अधीन नहीं। अभक्ष्य- भक्षण शरीर बच नहीं सकता, केवल शरीर की किञ्चित पुष्टि हो सकती है, पर अभक्ष्य-भक्षण से जो पाप होगा, उसका दंड तो भोगना ही पड़ेगा। मनुष्य साधन-भजन का तो केवल बहाना बनाता है, वास्तव में तो शरीर में राग-आसक्ति रहने से ही वह अशुद्ध दवाइयों का सेवन करता है। जिसका शरीर में राग नहीं है, जिसका उद्देश्य अपना कल्याण करना है, वह प्रतिक्षण नष्ट होने वाले शरीर के लिए अशुद्ध चीजों का सेवन करके पाप क्यों करेगा? |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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