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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
9. गीता में आहारी का वर्णन
गीता में जो तीनों (सत्त्व, रज और तम) गुणों का वर्णन हुआ है, उनमें भी तारतम्य रहता है। सात्त्विक मनुष्य में सत्त्वगुण की प्रधानता होने पर भी साथ में राजस-तामस भाव रहते हैं। राजस मनुष्य में रजोगुण की प्रधानता होने पर भी साथ में सात्त्विक-तामस भाव रहते हैं। तामस मनुष्य में तमोगुण की प्रधानता होने पर भी साथ में सात्त्विक राजस भाव रहते हैं। इसका कारण यह है कि संपूर्ण सृष्टि त्रिगुणात्मक है।[1] दो गुणों को दबाकर एक गुण प्रधान होता है।[2] अतः सात्त्विक मनुष्य को सात्त्विक पदार्थ स्वाभाविक प्रिय लगने पर भी तीनों गुणों का मिश्रण रहने से अथवा पहले राजस-तामस पदार्थों के सेवन के अभ्यास से अथवा शरीर में किसी पदार्थ की कमी होने से अथवा शरीर बीमार हो जाने से कभी कभी राजस तामस भोजन की इच्छा हो जाती है। जैसे, खूब नमक या नमकीन पदार्थ पाने की मन में आ जाती है अथवा अधपका साग आदि पदार्थ पाने का मन में आ जाती है। राजस मनुष्य को राजस पदार्थ स्वाभाविक प्रिय लगने पर भी तीनों गुणों का मिश्रण रहने से अथवा पहले सात्त्विक तामस पदार्थों के सेवन के अभ्यास से अथवा अन्य किसी कारण से कभी-कभी सात्त्विक तामस पदार्थों की इच्छा हो जाती है। जैसे, पहले दूध, काजू, पिस्ता, बादाम आदि का सेवन किया है, तो बीमारी के कारण शरीर कमज़ोर होने पर बल बढ़ाने के लिए उन सात्त्विक पदार्थों की इच्छा हो जाती है। ऐसे ही कभी-कभी लहसुन, प्याज आदि तामस पदार्थों का भी इच्छा हो जाती है। तामस मनुष्य को तामस पदार्थ स्वाभाविक प्रिय लगने पर भी शरीर में कमजोरी आ जाने आदि कारणों से दूध, घी आदि सात्त्विक तथा खट्टे, नमकीन आदि राजस पदार्थों की इच्छा हो जाती है। सात्त्विक मनुष्य की पूर्व संस्कार आदि के कारण राजस-तामस भोजन की इच्छा हो जाने पर भी वह इच्छा राजस-तामस पदार्थो का सेवन करने के लिए बाध्य नहीं करती; क्योंकि उसमें सत्त्वगुण की प्रधानता रहने से विवेक जाग्रत रहता है। इतना ही नहीं, सात्त्विक पदार्थ स्वाभाविक प्रिय होने पर भी उसमें सात्त्विक पदार्थ की प्रबल इच्छा नहीं रहती। तीव्र वैराग्य होने पर तो सात्त्विक पदार्थों की भी उपेक्षा हो जाती है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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