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[[युधिष्ठिर]] ने ‘धर्मार्थकाम’ इस त्रिवर्ग के मूल के विषय में प्रश्न किया। उत्तर में कामंदक ऋषि के मत का उपन्यास किया गया है तथा उसकी पुनः व्याख्या की गई है। ज्ञात होता है कि यह कामंदक आचार्य की कही गई राजनीति थी।<ref>अ. 123</ref> | [[युधिष्ठिर]] ने ‘धर्मार्थकाम’ इस त्रिवर्ग के मूल के विषय में प्रश्न किया। उत्तर में कामंदक ऋषि के मत का उपन्यास किया गया है तथा उसकी पुनः व्याख्या की गई है। ज्ञात होता है कि यह कामंदक आचार्य की कही गई राजनीति थी।<ref>अ. 123</ref> | ||
− | अध्याय 125 में [[प्रह्लाद]] के मुख से राजा के लिए आवश्यक शील धर्म का उपदेश कराया गया है। प्रह्लाद असुरों का राजा था। वह शील का अनुयायी था। उसके सामने एक महाकाय पुरुष प्रकट हुआ। पूछने पर उसने अपने-आपको धर्म का शील कहा। बात यह थी कि भागवत लोग बौद्धों को माया-मोह शास्ता के अनुयायी असुर कहते थे, जिनमें शीलधर्म का अत्यधिक प्रचार था। इस प्रकार की कथा [[विष्णु पुराण]] और [[लिंग पुराण]] में भी आई है। यहाँ भी किञ्चित् परिवर्तन से उसे ले लिया गया है। [[वामन पुराण]] के अनुसार ये असुर मागध मुनियों के शिष्य थे। उनके उपदेश के अनुसार धर्म का पालन करने से इनकी प्रजाओं की वृद्धि हुई। उस विशालकाय पुरुष ने कहा, “हे प्रह्लाद, मुझे धर्म जानो। जहाँ शील है वहीं मैं रहता हूँ।”<ref> | + | अध्याय 125 में [[प्रह्लाद]] के मुख से राजा के लिए आवश्यक शील धर्म का उपदेश कराया गया है। प्रह्लाद असुरों का राजा था। वह शील का अनुयायी था। उसके सामने एक महाकाय पुरुष प्रकट हुआ। पूछने पर उसने अपने-आपको धर्म का शील कहा। बात यह थी कि भागवत लोग बौद्धों को माया-मोह शास्ता के अनुयायी असुर कहते थे, जिनमें शीलधर्म का अत्यधिक प्रचार था। इस प्रकार की कथा [[विष्णु पुराण]] और [[लिंग पुराण]] में भी आई है। यहाँ भी किञ्चित् परिवर्तन से उसे ले लिया गया है। [[वामन पुराण]] के अनुसार ये असुर मागध मुनियों के शिष्य थे। उनके उपदेश के अनुसार धर्म का पालन करने से इनकी प्रजाओं की वृद्धि हुई। उस विशालकाय पुरुष ने कहा, “हे प्रह्लाद, मुझे धर्म जानो। जहाँ शील है वहीं मैं रहता हूँ।”<ref>धर्म प्रह्लाद मां विद्धि यात्रासौ द्विजसत्तमः।<br /> |
यत्र यास्यामि दैत्येन्द्र यतः शील ततो ह्ययम्।। (124। 29)</ref> | यत्र यास्यामि दैत्येन्द्र यतः शील ततो ह्ययम्।। (124। 29)</ref> | ||
01:14, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 118-128
पर्वतों का राज मेरु को बनाया। समुद्र को नदियों का राजा बनाया। वरुण को जलों का स्वामी, मृत्यु को प्राण का स्वामी, और अग्नि को तेजों का स्वामी बनाया। रुद्रों का स्वामी ईशान को, वसिष्ठ को विप्रों का, जातिवेदस अग्नि को वसुओं का, तेजों का सूर्य को, नक्षत्रों का चन्द्रमा को, लताओं का अंशुमान सोम को, भूतों का द्वादश भुजाओं वाले स्वामी स्कन्द को, और काल को सर्व-संहार का अधिपति नियुक्त किया। सब शरीरों का अधिपति राजराज कुबेर को बनाया। सब रुद्रों का स्वामी शूलपाणि शंकर को बनाया। ब्रह्मा ने दण्ड स्वरूप अपने उस पुत्र को सबका प्रजापति नियुक्त किया। यज्ञ के सकुशल समाप्त होने पर महादेव शिव ने उस दण्ड को विष्णु को समर्पित किया। विष्णु ने उसे अंगिरा को, अंगिरा ने इन्द्र और मरीचि को। मरीचि ने भृगु को, और भृगु ने उसे ऋषियों को सौंप दिया। तब ऋषियों ने उस दण्ड रूप धर्म को लोकपालों को दिया। उसे ही श्राद्धदेव मनु ने अपने पुत्रों को धर्म की रक्षा के लिए दिया। दण्ड का प्रयोग विभिन्न रूपों के अनुसार करना चाहिए। मनमाने ढंग से नहीं। कड़वी बातों का निग्रह, यह दण्ड का रूप है। स्वर्ण का आदान तो उसकी बाहरी क्रिया है। शरीर की विकलता या वध् अल्प कारण से अनुचित है। शरीर-पीड़ा, देह-त्याग, देश निकाला ये सब दण्ड के रूप हैं। किन्तु इनका प्रयोग न्याय बुद्धि से होना चाहिए।” इसके अनन्तर शक्ति के संचार की एक लम्बी श्रृंखला की कल्पना करते हुए अन्त में कहा गया है कि दण्ड की प्रजाओं में जागता है (दण्डो जागर्ति तासु च)। इस प्रकार आदि, मध्य और अन्त में दण्ड ही मुख्य है। धर्मविद् राजा को यथान्याय दण्ड का विधान करना चाहिए। दण्ड सब लोकों का नियन्ता है। युधिष्ठिर ने ‘धर्मार्थकाम’ इस त्रिवर्ग के मूल के विषय में प्रश्न किया। उत्तर में कामंदक ऋषि के मत का उपन्यास किया गया है तथा उसकी पुनः व्याख्या की गई है। ज्ञात होता है कि यह कामंदक आचार्य की कही गई राजनीति थी।[1] अध्याय 125 में प्रह्लाद के मुख से राजा के लिए आवश्यक शील धर्म का उपदेश कराया गया है। प्रह्लाद असुरों का राजा था। वह शील का अनुयायी था। उसके सामने एक महाकाय पुरुष प्रकट हुआ। पूछने पर उसने अपने-आपको धर्म का शील कहा। बात यह थी कि भागवत लोग बौद्धों को माया-मोह शास्ता के अनुयायी असुर कहते थे, जिनमें शीलधर्म का अत्यधिक प्रचार था। इस प्रकार की कथा विष्णु पुराण और लिंग पुराण में भी आई है। यहाँ भी किञ्चित् परिवर्तन से उसे ले लिया गया है। वामन पुराण के अनुसार ये असुर मागध मुनियों के शिष्य थे। उनके उपदेश के अनुसार धर्म का पालन करने से इनकी प्रजाओं की वृद्धि हुई। उस विशालकाय पुरुष ने कहा, “हे प्रह्लाद, मुझे धर्म जानो। जहाँ शील है वहीं मैं रहता हूँ।”[2] तब प्रह्लाद के शरीर से एक महान तेज प्रकट हुआ। पूछने पर उसने बताया कि मैं सत्य हूँ और शील के पास जाना चाहता हूँ। इस प्रकार सत्य और शील पर बल देने वाले बौद्ध धर्म की ओर संकेत है। लेखक ने राजधर्म के अन्त में बुद्ध के उपदेश का भी उल्लेख करना उचित समझा।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अ. 123
- ↑ धर्म प्रह्लाद मां विद्धि यात्रासौ द्विजसत्तमः।
यत्र यास्यामि दैत्येन्द्र यतः शील ततो ह्ययम्।। (124। 29) - ↑ ततोऽपरो महाराज प्रज्वल्लनिव तेजसा।
शरीरान्निः सृतस्तरस्य प्रह्लादस्य महात्मनः।। (124। 50)
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