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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 118-128
“हे प्रह्लाद मैं वृत्त या आचार हूँ। जहाँ धर्म होता है वहीं मेरा भी स्थान है।” इस प्रकार वृत्त या धर्म के विषय में बौ़द्ध और ब्राह्मण दृष्टिकोण का समन्वय किया गया है। शील, धर्म, सत्य, वृत्त, बल-ये सब शील से उत्पन्न होते हैं। शील की प्राप्ति का संक्षिप्त उपाय इस प्रकार बताया है। सब भूतों में मनसा, वाचा, कर्मणा, अद्रोह रखना, अनुग्रह और दनान यह शील है। जिससे औरों का हित न हो और जिससे अपने-आपको लज्जा आवे, वैसा कर्म न करना चाहिए। ऐसा कर्म करना चाहिए जिससे लोगों की सभा में प्रशंसा हो। संक्षेप में यही शील का लक्षण है। यद्यपि शील-विहीन राजा भी कभी श्री सम्पन्न हो सकता है, पर श्री अधिक दिन उसके पास टिक नहीं सकती। यह जानकार शील का पालन करना चाहिए। युधिष्ठिर ने आशा और उत्साह के सम्बन्ध का प्रश्न किया, “भविष्य के विषय में आशा ही राजा और प्रजा की समृद्धि का कारण है। आशा ही समुत्थान का लक्षण है। सब पुरुषों के हृदय में महती आशा उत्पन्न होती है। यदि उसका विघात हो, तो दुःख और मृत्यु का फल मिलता है। आशा को पर्वत और आकाश से भी ऊंचा कहना चाहिए। यदि आशा दुर्लभ हो जाय, तो उससे अधिक दुर्लभ और क्या होगा?”[1] इसके समर्थन में एक आख्यान कहा गया है, जिसे बदरीनाथ में रहने वाले एक अत्यन्त कृश तपस्वी ने सुनाया था। इसमें निराशा दर्शन का प्रतिपादन किया गया है। किसी प्रकार की आशा का होना यही मानुषिक कृशता का लक्षण है। जिसे किसी प्रकार की आशा नहीं वह सब प्रकार से सुखी है। यह सिद्धान्त गीता में भी आया है- निराशीर्यत्त चित्तात्मा। किन्तु उसकी व्याख्या के लिए जो कहानी गढ़ी गई है वह बहुत भोंडी है।[2] अध्याय 127 में भी ऐसा ही निरर्थक पुछल्ला है। उसका राजधर्म या दण्ड से कोई सम्बन्ध नहीं। माता-पिता की सेवा कैसे करनी चाहिए, यही बात पारियात्र पर्वत पर रहने वाले ऋषि गौतम और यमराज के संवाद के रूप में कही गई हैं।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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