महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
92.दुर्योधन का अंत
दूसरी ओर शकुनि और सहदेव का युद्ध हो रहा था। तलवार की पैनी धार के समान नोंक वाला एक बाण शकुनि पर चलाते हुए सहदेव ने गरजकर कहा- "मूर्ख शकुनि! अपने किये का फल भुगत ही ले!" और मानो उसकी बात सफल हो गई। बाण धनुष से निकला नहीं कि शकुनि का सिर कटकर गिरा नहीं। भगवान व्यास कहते हैं कि शकुनि का सिर जो कौरवों के लिये पापों की जड़ के समान था भूमि पर कटकर गिर पड़ा। इस प्रकार कौरव-सेना के सारे वीर कुरुक्षेत्र कि भूमि पर सदा के लिये सो गये। अकेला दुर्योधन जीवित बचा था अब उसके पास न तो सेना थी न रथ ही। उस वीर की स्थिति बड़ी दयनीय थी। ऐसी हालत में दुर्योधन अकेला ही हाथ में गदा लिये एक जलाशय की ओर चुपके से चल दिया। मन में सोचता जाता था- 'दूरदर्शी ज्ञानी विदुर पहले ही से यह सब जानते थे कि युद्ध का यह परिणाम होगा। तभी तो बार-बार मुझे समझाते रहते थे। पर मैंने कब किसकी सुनी!' यह सोचते-सोचते वह जलाशय में उतर गया पर अवसर बीत जाने पर पछताने से कोई लाभ नहीं होता। किये का फल भुगतना ही पड़ता है। उसने आपने मन में कहा। उधर दूसरे दिन जब युद्ध-भूमि में दुर्योधन दिखाई न दिया तो युधिष्ठिर और उनके भाई उसे खोजते हुए उसी जलाशय पर जा पहुँचे जहाँ वह छिपा बैठा था। श्रीकृष्ण भी उनके साथ थे। उन सबको यह पता चल गया था कि दुर्योधन जलाशय में छिपा हुआ है। "दुर्योधन अपने कुटुम्ब और वंश का नाश कराने के बाद अब पानी में छिपकर प्राण बचाना चाहते हो? तुम्हारा दर्प और तुम्हारा आत्माभिमान क्या हुआ? तुम क्षत्रिय-कुल में पैदा हुए हो? बाहर निकलो और क्षत्रियोचित ढंग से युद्ध करो। भीरु न बनो। युद्ध से भागकर जीते रहने की चेष्टा न करो।" - युधिष्ठिर ने ललकारकर कहा। यह सुन दुर्योधन ने व्यथित होकर कहा- "युधिष्ठिर! यह न समझना कि मैं प्राणों के डर से यहाँ छिपा बैठा हूँ। मैं भयभीत होकर भी यहाँ नहीं आया। शरीर की थकान मिटाने को ही यहाँ ठंडे जल में विश्राम कर रहा हूँ युधिष्ठिर, मैं न तो डरा हुआ ही हूँ और न मुझे प्राणों का ही मोह है। फिर भी, सच पूछो तो युद्ध से मेरा जी हट गया है। मेरे सभी संगी-साथी और बंधु-बांधव मारे जा चुके हैं। अब मैं बिल्कुल अकेला हूँ। राज्य-सुख का मुझे लोभ नहीं रहा यह सारा राज्य अब तुम्हारा ही है। निश्चिंत होकर तुम्हीं इसका उपभोग करो।" "दुर्योधन! एक दिन वह था कि जब तुम्हीं ने कहा था कि सुई की नोंक जितनी जमीन भी नहीं दूंगा। शांति की इच्छा से जब हमने तुम्हारे आगे मिन्नतें कीं, तब तुमने इन्कार कर दिया था। अब कहते हो, मेरा सर्वस्व ही तुम्हारा ही है। शायद तुम्हें अपने किये पापों का स्मरण न रहा, तुमने हमें जो हानियां पहुँचाई थीं और द्रौपदी का जो अपमान किया था, वे सब तो पुकार-पुकार कर तुम्हारे प्राणों की बलि मांग रहे हैं। अब तुम नहीं बच पाओगे।" युधिष्ठिर ने गरजते हुए कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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