महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
76.दुर्योधन का कुचक्र
पांडव सेना का व्यूह उस मोर्चे पर टूट गया जिस पर सेनापति धृष्टद्युम्न था और महारथियों में घोर द्वंद्व छिड़ गया। माया-युद्ध का निपुण शकुनि सहदेव से युद्ध करने लगा। जब उनके रथ टूट गये तो दोनों वीर रथ से उतर पड़े और गदा लेकर एक दूसरे से ऐसे टकराये, मानो दो पहाड़ जीवित होकर भिड़ गये हों। भीमसेन और विविंशति में जो युद्ध हुआ, उसमें दोनों के रथ टूट फूट गये। शल्य ने अपने भांजे नकुल को बहुत सताया। नकुल को इससे बड़ा क्रोध चढ़ा। उसने मामा के रथ की ध्वजा और छतरी काटकर गिरा दी और विजय का शंख बजा दिया। दूसरी ओर कृपाचार्य धृष्टकेतु पर टूट पड़े और उसको दूर तक खदेड़ दिया। सात्यकि और कृतवर्मा में भी भयानक युद्ध हुआ। विराटराज कर्ण से जा भिड़े। सदा की भाँति अभिमन्यु ने अद्भुत पराक्रम का परिचय दिया। उसने अकेले ही पौरव, कृतवर्मा, जयद्रथ, शल्य आदि चारों महारथियों का मुकाबला किया और चारों को परास्त कर दिया। इसके बाद भीम और शल्य में अचानक गदा-युद्ध छिड़ा। अन्त में भीम ने शल्य को बुरी तरह हराया और उनको युद्ध-क्षेत्र से हटना पड़ा। यह देख कौरव-सेना का साहस डगमगाने लगा। उस पांडव-सेना ने कौरव-सेना पर जोरों का हमला कर दिया। इससे कौरव-सेना में खलबली मच गई। द्रोण ने जब यह देखा तो अपनी सेना का हौसला बढ़ाने के लिये अपने सारथी को आज्ञा दी कि रथ को उस ओर ले चलो, जिधर युधिष्ठिर युद्ध कर रहे हों। द्रोण के सुनहरे रथ के आगे सिंधु-देश के चार सुन्दर और फुर्तीले घोड़े जुते हुए थे। द्रोण का आज्ञा देना था कि घोड़े हवा से बातें करते हुए अपने रथ को युधिष्ठिर के रथ की ओर ले दौड़े। आचार्य के रथ को अपनी ओर आते देख युधिष्ठिर ने आचार्य पर बाज के पर लगे तीखे बाण चलाये; किन्तु आचार्य उनसे जरा भी विचलित न हुए। उल्टे धर्मराज पर उन्होंने कई बाण चलाये और उनका धनुष काटकर गिरा दिया। युधिष्ठिर संभले, इससे पहले ही द्रोणाचार्य वेग से उनके निकट जा पहुँचे। धृष्टद्युम्न ने हजार चेष्टा की परन्तु वह द्रोण को नहीं रोक सके। उनका प्रचंड वेग किसी के रोके नहीं रुकता था। "युधिष्ठिर पकड़े गये!" "युधिष्ठिर पकड़े गये!" की चिल्लाहट से सारा कुरुक्षेत्र गूंज उठा। इतने ही में एकाएक न जाने कहाँ से अर्जुन उधर आ पहुँचा। रक्त की नदी को पार करता, हड्डियों के पहाडों को लांघता और धरती को कंपाता हुआ अर्जुन का रथ वहाँ जा खड़ा हुआ। देखते ही द्रोणाचार्य जरा देर के लिये तो सन्न से रह गये। और अर्जुन के गांडीव धनुष से बाणों की ऐसी अविरल बौछार छूट रही थी कि कोई देख ही नहीं पाता था कि कब बाण धनुष पर चढ़ते और कब चलते। कुरुक्षेत्र का आकाश बाणों से छा गया और इस कारण सारे मैदान में अंधकार-सा छा गया। अर्जुन के हमले के कारण द्रोणाचार्य को पीछे हटना पड़ा। युधिष्ठिर को जीवित पकड़ने का उनका प्रयत्न विफल हो गया और संध्या होते-होते उस दिन का युद्ध भी बंद हो गया। कौरव -सेना में भय छा गया। पांडव सेना के वीर शान से अपने-अपने शिविर को लौट चले। सैन्य-समूह के पीछे-पीछे चलते हुए कृष्ण और अर्जुन अपने शिविर में जा पहुँचे। इस प्रकार ग्यारहवें दिन का युद्ध समाप्त हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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