महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
39.दुर्योधन अपमानित होता है’
कितने ही सैनिक खेत रहे; बचे-खुचे सैनिकों में से कुछ ने पांडवों के आश्रम में जाकर दुहाई मचाई और रक्षा की प्रार्थना की। दुर्योधन और उसके साथियों का इस प्रकार अपमानित होना सुनकर भीम बड़ा खुश हुआ। युधिष्ठिर से बोला- "भाई साहब, गन्धर्वों ने तो वही कर दिया जो हमें करना चाहिए था। दुर्योधन हमारा मजाक उड़ाने के लिये ही यहाँ आया था। सो उसे ठीक सजा मिली। गन्धर्वराज का हमें आभार मानना चाहिए जो उन्होंने सारा काम खुद कर डाला।" युधिष्ठिर ने गंभीर स्वर में कहा- "भाई भीमसेन! तुम्हारा इस तरह खुश होना ठीक नहीं। ये हमारे ही कुटुम्बी हैं। इनको गन्धर्वराज ने कैद कर रक्खा है, यह देखते हुए भी हम हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहें, यह हमारे लिए उचित नहीं। अच्छा यही है कि तुम अभी जाओ और किसी तरह अपने बन्धुओं को गन्धर्वों के बन्धन से छुड़ा लाओ।" युधिष्ठिर की बातें सुनकर भीमसेन झल्ला उठा। बोला- "आप भी कैसे अजीब हैं जो ऐसी आज्ञा दे रहे हैं। जिस पापी ने हमें लाख के घर मे ठहराकर आग की भेंट चढ़ाने का कुचक्र रचा, भला बताइए तो, उसे मैं क्यों छुड़ा लाऊं? क्या आप यह भूल गये कि इसी दुरात्मा दुर्योधन ने मुझे विष मिला भोजन खिलाया था और गंगा में डूबोकर मार डालने का प्रयत्न किया था? ऐसे पापात्मा पर आप कैसे दया करते हैं? जिन्होंने प्यारी द्रौपदी को भरी सभा में खींच लाकर अपमानित किया, आप कैसे कहते हैं कि उन्हीं नीचों को हम अपना भाई मानें?” भीमसेन यह बातें कर ही रहा था कि इतने में बन्दी दुर्योधन और उसके साथियों का आर्तनाद सुनाई दिया। सुनकर युधिष्ठिर बड़े विचलित होकर दूसरे भाई को बोले- "भीमसेन की बात ठीक नहीं है। भाइयो! हमें अभी कौरवों को छुड़ा लाना चाहिए।" युधिष्ठिर के आग्रह करने पर भीम और अर्जुन ने कौरवों की बिखरी सेना को फिर से इकट्ठा किया और जाकर गन्धर्व सेना पर टूट पड़े। पांडवों को देखते ही गन्धर्वराज चित्रसेन का क्रोध शान्त हो गया। उसने कहा- "मैंने तो दुरात्मा कौरवों को शिक्षा देने के लिए यह सब किया था। यदि आप चाहते हैं तो मैं इनको अभी मुक्त किये देता हूँ।" यह कहकर चित्रसेन ने कौरवों को बन्धन मुक्त कर दिया और साथ ही उन्होंने यह भी आदेश दिया कि इसी घड़ी हस्तिनापुर लौट जायें। अपमानित कौरव फौरन हस्तिनापुर की ओर भाग खड़े हुए। कर्ण, जो पहले ही लड़ाई से भाग खड़ा हुआ था, रास्ते में दुर्योधन से मिला। दुर्योधन ने क्षुब्ध होकर कहा- "कर्ण! अच्छा होता यदि मैं गन्धर्वों के हाथों ही वहाँ मारा गया होता! यह अपमान तो नहीं सहना पड़ता!” कर्ण ने बहुत समझाया, पर दुर्योधन का क्षुब्ध हृदय जरा भी शान्त न हो सका। बोला- "दु:शासन! अब मेरा जीना तो बेकार है। मैं यहीं अनशन करके प्राण त्याग कर दूंगा। तुम्हीं जाकर राज काज संभालो। शत्रुओं के सामने मेरा जो घोर अपमान हो चुका है, इसके बाद मैं बिल्कुल जीना नहीं चाहता।" दुर्योधन को बहुत ग्लानि अनुभव होने लगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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