भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 1
कृष्ण द्वैपायन व्यास के इस महाभारत को कार्ष्णवेद भी कहते हैं। कुरुवंशियों का महान चरित्र इसमें कहा गया है। एक ओर चारों वेद और दूसरी ओर महाभारत- इन दोनों को देवर्षियों ने तुला पर रखकर तोला, तो महत्त्व और गुरुत्त्व में महाभारत ही अधिक हुआ। तभी इसका नाम महाभारत पड़ा। अमित तेजस्वी व्यास का जितना अभिमत था, वह इन लक्ष श्लोकों में भर गया है। ऋषियों से संस्तुत यह पुराण श्रव्य वस्तुओं में सर्वोत्तम है। यह पवित्र अर्थशास्त्र है। यह परम धर्मशास्त्र है। यह उच्चतम मोक्षशास्त्र है। यह वीरों को जन्म देने वाला है। यह महान कल्याणकारी है। ऐसे पुंसवन और स्वस्त्ययन इस जय नामक इतिहास को सुनना चाहिए। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का निचोड़ इस ग्रन्थ में आ गया है। भाव-शुद्धि इस ग्रन्थ की प्राण-शक्ति है। तप, अध्ययन, वेद-विधि, इनके पीछे यदि भाव-शुद्धि नहीं है, तो ये व्यर्थ हैं। इस ग्रन्थ में कहीं संक्षिप्त और कहीं विस्तृत शैली से महाप्राज्ञ ऋषि ने सब कुछ कहा है। इसमें अनादि अनन्त लोकचक्र के रहस्य का वर्णन है। इसमें ब्रह्मार्षि और राजर्षियों के चरित्र हैं। सविस्तर भूत-सृष्टि, सविज्ञान श्रुतियां, धर्म, अर्थ, काम, विविध शास्त्र, लोकयात्रा-विधान, इतिहास और उसकी व्याख्या, सभी कुछ पराशर के पुत्र, विद्वान और तीव्रव्रतों का पालन करने वाले ब्रह्मर्षि व्यास ने अपने तप और ब्रह्मचर्य की शक्ति से कह दिया है। ऋषियों के आश्रमों में जो संस्कृति प्रतिपालित हुई, राजर्षियों के पुण्यचरितों द्वारा जिसका विस्तार हुआ, लोक के लोम-प्रतिलोम में जो व्याप्त हुई, उस सांस्कृतिक गंगा को हिमालय से सागर पर्यन्त यदि एकत्र देखना हो, तो यह दर्शन व्यास के महाभारत में सदा के लिए सुलभ है। वासुदेव कृष्ण का माहात्म्य, पाण्डवों की सत्यता और धृतराष्ट्र के पुत्रों का दुर्वृत्त, यही तो भगवान व्यास ने चौबीस सहस्र श्लोकों की भारत-संहिता में कहा। उसी भारत-संहिता से अनेक उपाख्यानों के मिल जाने से, नीति और धर्म के अनेक प्रकरणों के समाविष्ट हो जाने तथा भूगोल, इतिहास, धर्म और दर्शन की विपुल सामग्री के एकत्र हो जाने से लक्ष श्लोकात्मक महाभारत का जन्म हुआ। वेदव्यास ने पूर्व काल में यह संहिता अपने पुत्र शुकदेव को पढ़ाई थी। उनसे अन्य अनुरूप शिष्यों को वह प्राप्त हुई और क्रमशः लोक में फैली। नारद, असित और देवल ने नारायणीय पंचरात्र-धर्म से इसका संस्कार किया। एक ही तत्त्व नारायण और नर इन दो नामों से विख्यात हैं-“नारायणो नरश्चैव तत्त्वमेकं द्विधा कृतम।” एक ही महान सत्य के ये दो रूप हैं। वह नारायणी महिमा किस प्रकार नर-रूप में चरितार्थ होती है, इसका सांगोपांग निरूपण इस महाभारत का उद्देश्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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