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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 129-167
राजा को चपल बुद्धि नहीं होना चाहिए और न कार्य करने में ही चपल होना चाहिए। चपलता बड़ा दोष है। यह लोक अर्थार्थी है। कोई किसी का प्रिय नहीं। अर्थ, युक्ति या स्वार्थ के कारण ही सब सगे बन जाते हैं। राजा को चाहिए कि इन छोटी बातों को भी पहचाने। चूहे ने कहा, “तुम मेरे स्वाभाविक शत्रु हो। अब मेरा तुम्हारा समागम नहीं हो सकता। दो मां जाय भाइयों में या पति-पत्नी में भी निष्कारण प्रीति नहीं होती। मेरे और तुम्हारे बीच में इसके सिवाय प्रीति का कारण और क्या है कि तुम खाने वाले हो और मैं तुम्हारा खाद्य हूँ। सन्धि और विग्रह की नीति में उनके रूप क्षण-क्षण में बदलते रहते हैं। जब तक हममें स्वार्थ था, तब तक मैत्री थी। वह तो उसी के साथ विदा हो गई। सन्धि-विग्रह के क्षेत्र में जो आज ही मित्र है, वह आज ही शत्रु बन जाता है। और फिर उसी दिन पलट कर मित्र हो जाता है। स्वार्थों की ऐसी चपलता होती है। और, वे जल्दी-जल्दी बदल जाते हैं। “तुम मेरे घोर शत्रु हो। केवल स्वार्थ की एकता से मित्र बन गए थे। अब वह बात नहीं रही। मैं इस विषय के शास्त्रों का तत्त्व जानकर फिर तुम्हारे फन्दे में कैसे फंस सकता हूं? मैं तुम्हारे पराक्रम से मुक्त हुआ और तुम मेरे पराक्रम से। एक दूसरे का वह अनुग्रह समाप्त हो गया। अब समागम नहीं हो सकता? अब मुझे खा लेने के सिवाय तुम्हारा मुझसे और क्या काम बन सकता है? मैं अन्न हूं, तुम खाने वाले हो। मैं दुर्बल हूं, तुम बलवान हो। मेरे और तुम्हारे बीच में बल की विषमता है, इसलिए सन्धि नहीं हो सकती। मैं तुम्हारी बुद्धि की तारीफ करूंगा, जो इतनी आसानी से अपने लिए भक्ष्य पा लेना चाहते हो। बन्धन से छूटने के बाद तुम्हें भूख लगी है, सो तुम शास्त्र की दुहाई देकर मुझे खा लेना चाहते हो। तुम वहीं से मेरी कुशल मनाओ।”[1] प्राचीन राजशास्त्र में ‘आत्मरक्षितकम्’ नामक एक प्रकरण था। उसका सारांश यहाँ चूहे के मुख से कहलवाया गया है। कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी यह प्रकरण है, पर उसका गठन इससे कुछ भिन्न है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अ. 137
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