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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 108-116
युधिष्ठिर ने यह प्रश्न उठाया कि साधनहीन दुर्बल राजा का शत्रु बलवान हो तो उसे क्या करना चाहिए। इसके उत्तर नदी और समुद्र के संवाद द्वारा उनका समाधान किया गया है। समुद्र ने प्रश्न किया कि बड़े-बड़े पेड़ नदी के किनारे बह जाते हैं, किन्तु छोटी-सी बेंत अपने स्थान पर अचल रहती है। गंगा ने उत्तर दिया कि वृक्ष अपनी अकड़ में आन्धी और पानी के सामने नहीं झुकते, किन्तु बेंत बेचारी झुक जाती है। राजनीति में इसे ‘वैतसी वृत्ति’ कहते थे। आक्रमणकारी शत्रु के सामने झुककर जो राजा अपनी रक्षा करता था वह इस प्रकार वैतसी वृत्ति का आश्रय लेकर अपने को बचा लेता था। दुर्बल को बलवान के सामने ऐसा ही करना चाहिए[1] कालिदास ने ‘रघुवंश’ में इसका उल्लेख किया हैः अनभ्राणां समुद्धर्तु स्तस्मात्सिन्धुरयादिव। अर्थात सुह्य या ताम्रलिप्ति के राजा ने रघु के सामने वैतसी वृत्ति से अपनी रक्षा की। ज्ञात होता है, गुप्त राजनीति का यह एक सम्मत दृष्टिकोण था।[3] यह प्रश्न उठाया गया है कि यदि प्रगल्भ-मूर्ख राजसभा में बुरा-भला कहने लगे, तो क्या करना चाहिए। उत्तर में कहा गया है कि उसे टें-टें करती हुई टिटिहरी के समान मानकर उसकी अपेक्षा करनी चाहिए। उसके वचन सह लेने से अपना पाप धुल जाता है। उसे अपनी श्लाघा ही समझना चाहिए। अन्त में वह स्वयं लज्जित होकर सूखे हुए ठूंठ वृक्ष की तरह हो जाता है। जिसने आत्म-दमन किया है, वह इस प्रकार के अधम पुरुष की उपेक्षा करता है। जिसने दमन किया है, वह उस प्रकार के खल को ध्यान में नहीं लाता। जो वह कहे, उसे सह लेना चाहिए। क्षुद्र पुरुष द्वारा की हुई प्रशंसा और निन्दा से कुछ लाभ नहीं। जंगल में जैसे कौआ कांव-कांव करता है, वैसे ही उसका कथन निरर्थक है। जो सामने गुणवादी है और पीछे निन्दा करता है, वह कुत्ते की तरह स्वयं नष्ट हो जाता है। यथासम्भव ऐसे अल्पचेता व्यक्ति को कुत्ते के जुठारे हुए मांस की तरह त्याग देना चाहिए। जो दुरात्मा किसी महात्मा की निन्दा करता है, वह अपने ही दोषों को प्रकट करता है, जैसे कोई सांप अपने फुफ्कारते फणों को दिखलाता है। जो अपनी आदत के अनुसार कुवचन कहने वाले दुष्ट का उत्तर देना चाहता है, वह गधों के समान धूल में लोटता है। ऐसे दुष्ट को मनुष्यों को खाने वाले भूखे भेड़िए के समान, उन्मत्त चिंघाड़ने वाले हाथी के समान भौंकने वाले क्रोधी कुत्ते के समान छोड़ देना चाहिए। उस पापी को धिक्कार है, जो सदा शत्रु का-सा व्यवहार करता है। जो इस प्रकार की दृष्टि रखता है, उसके पास कोई भी अप्रिय वचन नहीं खटक सकता।[4] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एवमेव यदा विद्वान्मन्येतातिबलं रिपुम्।
संश्रयेद्वैतसीं वृत्तिमेवं प्रज्ञानलक्षणम्।। (114।14) - ↑ 4। 35
- ↑ अ. 114
- ↑ अ. 115
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