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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 91-95
सब भूतों का संग्रह, दान और मधुरवाणी, पौर-जानपद लोगों की रक्षा-यह राजा का धर्म है। किन्तु यदि राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता, तो राजधर्म भार हो जाता है। दण्डवेत्ता, प्राज्ञ, शूर, ऐसा राजा प्रजाओं की रक्षा कर सकता है। किन्तु अदण्डधर, क्लीव और अबुद्धि वाला राजा प्रजा की रक्षा नहीं कर सकता। इसके बाद राजवृत्ति के रूप में राजा के लिए कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय किया गया है। इसके वक्ता नहुषपुत्र ययाति हैं। वसुमना कौसल्य ने वामदेव से प्रश्न किया कि क्या कोई ऐसी युक्ति भी है कि युद्ध के बिना ही राजा देशों को जीत ले।[1] युद्ध के द्वारा जो राज्य की विजय है, उसे जघन्य कहा गया है। पहली बात तो यह है कि जो अपना नहीं है, उसकी लिप्सा न करे। अपने मूल राज्य को दृढ़ बनाना चाहिए। जिसका मूल दृढ़ नहीं है, उसे यदि कुछ मिल भी जाय तो उससे क्या लाभ। जिसका अपना जनपद लम्बा-चौड़ा, सम्पन्न और राजा से प्रेम करने वाला है और जिसके सचिव संतुष्ट और पुष्ट हैं, उस राजा को दृढ़मूल कहना चाहिए। जिसके योद्धा सुसंतुष्ट, और उन्हें सब प्रकार सान्त्वना से युक्त बनाया गया है, सुपरीक्षित हैं, ऐसा राजा अल्पदण्ड से ही देश विजय कर लेता है। जिसके पौर-जानपद (नगर और गांव के लोग) अनुरक्त्, सुपूजित, धन्य-धान्य से युक्त होते हैं, वह राजा दृढ़मूल है। जब राजा अपने प्रभाव और काल की अनुकूलता समझे, तब वह परायी भूमि और धन को जीतने की इच्छा करे। इसका सार यह है कि राजा को सर्वप्रथम अपने पिता-पितामह के राज्य को, सचिवों एवं पौर-जानपद प्रजाओं को दृढ़ बनाना चाहिए। और तभी वह पराया देश जीतने की इच्छा करे। अन्यथा मूल भी जाता है और तूल भी नहीं मिलता।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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