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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 74-90
छोटा काम भी बिना सहायकों के नहीं होता, तो फिर राज्य-प्रबन्ध जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य का तो क्या कहना? अतः राजा को चाहिए कि ऋत्विक, आचार्य और सर्वथा नीति गुणों में परिपक्व सचिवों को राजकार्य में सहायक नियुक्त करे। राजा को सदा प्रमाद-रहित होकर कार्य करना चाहिए। अध्याय 82 में राजधर्म की एक कठिन समस्या को लिया गया है और कृष्ण-नारद-संवाद के रूप में इस बात की मीमांसा की गई है कि गणराज्यों में जो दल का नेता हो, उसे अपने ज्ञाति, बन्धुबान्धव और मित्रों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। इसका सार यह है कि गण के नेता को स्वजनों के कड़वे वचन अपनी मीठी वाणी से सहने चाहिएं, यह एक ऐसा शस्त्र है जो लोहे से न बना होने पर भी बड़ा कारगर होता है। कृष्ण ने कहा, “जो राज्य का परम मन्त्र या बड़ा रहस्य हो, उसे असुहृत व्यक्ति पर प्रकट नहीं करना चाहिए। मैं कहने के लिए तो ऐश्वर्य का भोक्ता हूं, किन्तु मुझे अपने ज्ञाति जनों का दास्य करना पड़ता है।[1] मैं इस समय अधिकारों का अर्धभोक्ता हूं, अर्थात आधा अधिकार मुझमें है और आधा आहुक में है। अपने ज्ञातिजन के दुरुक्त या कड़वे वचन को मैं क्षमा करता हूँ। मेरा हृदय मुझे ऐसे मथ रहा है जैसे अग्नि उत्पन्न करने वाला अरणि को मथता है। उनके दुरुक्त वचन मुझे नित्य जलाते रहते हैं। संकर्षण को अपने बल का अभिमान है और गद को अपनी सुकुमारता का। वे मुझे सहयोग नहीं देते। प्रद्युम्न को रूप का अभिमान है, इसलिए मैं असहाय रह जाता हूँ। और भी अन्धक वृष्णियों के दूसरे नेता अपने आपको महाभाग्यशाली समझकर मेरी पहुँच से बाहर हैं और अपने-अपने उत्थानकार्य में लगे रहते हैं। जिसका वे साथ नहीं देते वह कहीं का नहीं रहता और जिसका वे साथ दें उसके लिए भी मुश्किल है। इधर कुआं और उधर खाई-इन दोनों के बीच में मैं किसी एक को नहीं चुन पाता। आहुक या अक्रूर जिसके विपक्ष में हों, उसके लिए उससे दुःख की बात क्या हो सकती है। और जिसके पक्ष में जों उसके लिए भी अधिक दुःख क्या होगा? मेरी हालत दो जुवारियों के मां के समान है, जो एक की जय मनाती है और दूसरे की हार भी नहीं चाहती। अपने स्वजनों और निजी हित के इस संघर्ष में जो ठीक हो, वह मुझसे कहिये।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दास्यमैश्वर्यवादेन ज्ञातीनां वै करोम्यहम्
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