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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 41-46
विदुरनीति के सम्बन्ध में कहा जा चुका है कि वह साक्षात प्रज्ञावाद दर्शन का ग्रन्थ था। उसकी युक्तियों का झुकाव न केवल मंखलि गोशाल के नियतिवाद की काट-छांट करना है, बल्कि प्राचीन वैदिक कर्मयोग-परायण गृहस्थमार्ग को गौरव प्रदान करना भी है। प्रश्न यह है कि प्रज्ञावाद दर्शन के तुरन्त बाद ही सनत्सुजात प्रकरण को रखने में महाभारतकार का क्या हेतु हो सकता था? प्रज्ञावाद अत्यन्त व्यापक दर्शन था। कृष्ण प्रज्ञावादी थे। बुद्ध भी प्रज्ञावादी थे, किन्तु कृष्ण ने वैदिक कर्मयोग का आश्रय लिया और बुद्ध प्रज्ञावाद के मार्ग पर चलते हुए भी श्रमणधर्म या निवृत्ति मार्ग के प्रभाव में आ गये और उन्होंने व्यवहार में सांख्यविदों की त्यागप्रधान परम्परा को ही उत्तम समझा। हम देख चुके हैं कि सनत्सुजात उसी निवृत्ति-मार्गी परम्परा के आचार्य थे, जिसके सांख्यविद कपिल; किन्तु सनत्सुजात स्वतंत्र चिन्तन के समर्थक होते हुए भी वैदिक परम्परा से दूर न हटे थे और वेद की उच्च अध्यात्म विद्या या ब्रह्मदर्शन उन्हें मान्य था। तत्त्वचिंतन के विकास में यह स्थिति निश्चय बुद्ध के पूर्व रही होगी। कृष्ण ने भी एक ओर प्रज्ञावाद और उससे मिले हुए कर्म और पुरुषार्थ को अपनाया एवं दूसरी ओर वैदिक विचारधारा का जो तेजस्वी ब्रह्मदर्शन था, उसे बहुत पल्लवित रूप में प्रतिपादित किया है और उससे भी अधिक विचित्रता यह है कि निवृत्तिमार्गी सांख्य कपिल की विचारधारा को भी पर्याप्त आदर दिया है। विचारों के ये भिन्न-भिन्न तन्तु, जो महाभारत के कई प्रकरणों में फैले हुए स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं, अति सुन्दरता से गीता के बुद्धियोग-शास्त्र में एक में बट दिये गए हैं। गीता-शास्त्र की इस काव्यमयी कला को देख कर हार्दिक रोमांच होता है। बहुत विशिष्ट कल्याणमयी प्रज्ञा से ही इस प्रकार की युक्ति संभव हो सकती है। वस्तुतः अकेला प्रज्ञावाद भी जीवन के लिए पूर्ण दर्शन नहीं बन सकता, जब तक उसके साथ ब्रह्मवाद का मेल न हो; पर यह ब्रह्मवाद केवल कहने-सुनने की वस्तु न हो और न शुष्क तर्क का मुखापेक्षी हो। इसे तो अनुभव के भीतर से पल्लवित होना चाहिए और इसका अटूट प्रवाह हृदय के भीतर से आना चाहिए। गीता की यही विशेषता है। उसका ज्ञान-सुपर्ण प्रज्ञावाद और ब्रह्मवाद इन दोनों पंखों को एक साथ फड़फड़ाकर उड़ना चाहता है। विदुरनीति और सनत्सुजात पर्व जान बूझकर एक-दूसरे के साथ रखे गये हैं, पर इनमें गीता जैसी कलात्मकता नहीं। हां, दो प्राचीन दर्शनों की बहुव्यापी पृष्ठभूमि अवश्य है, जो उपनिषत्कालीन ज्ञानमंथन के द्वार को कुछ क्षण के लिए अनावृत कर देती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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