विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
4. विराट पर्व
अध्याय : 24-30
42. गोग्रहण
उसकी बात कर्ण को बहुत भाई। कर्ण ने कहा, ‘‘सुशर्मा ने क्या बढ़िया मौके की बात कही है! शीघ्र सेना जोड़कर वहाँ चलना चाहिए, यदि हमारे प्रज्ञाशाली पितामह की भी आज्ञा हो।’’ वाक्य का अन्तिम अंश कर्ण ने संभवतः भीष्म की चुटकी लेने के लिए कहा था। ऐसी झगड़ालू बात दुर्योधन के मन में घर कर गई। उसने दुःशासन से कहा, ‘‘बूढ़ों से सलाह करके जल्दी सेना सजाओ। पहले त्रिगर्तराज सुशर्मा सेना के साथ मत्स्य पर चढ़ाई करें। पीछे एक दिन का अन्तरा देकर हम भी वहाँ पहुँचेंगे। वे लोग जाकर ग्वालों से गोधन छीन लें।’’ ऐसा ही हुआ। जिस दिन तेरहवे वर्ष का अन्त था, उसी दिन सुशर्मा ने गोग्रहण किया। ग्वालों ने नगर में जाकर विराट से गुहार की कि त्रिगर्त-सेना बलपूर्वक गायों को हांके लिये जा रही है। यह सुनकर राजा विराट और उसके भाई-बन्द भाँति-भाँति के कवच पहन कर तैयार हो गए। यहाँ कथाकार ने कई प्रकार के कवचों का वर्णन किया है। राजकुमारों ने सूर्य के फुल्लों से अलंकृत तनुत्र धारण किये। विराट के छोटे भाई शतानीक ने भीतर से वज्रायस गर्भित और ऊपर से सुनहला चमचमाता हुआ कवच पहना। वज्रायस का तात्पर्य तार की बुनी हुई लोहे की जाली से था। चित्रसूत्र में वज्राकृति वर्तना को हैरिक कहा गया है। शतानीक से छोटे भाई मदिराश्व ने बिल्कुल लोहे का बना हुआ (सर्वपारशव) दृढ़वर्म, जिस पर आच्छादन चढ़ा हुआ था, धारण किया। विराट के ज्येष्ठ पुत्र शंख ने आय सगर्भित श्वेतवर्म पहना, जिस पर शताक्षि (आखों की आकृति सदृश) अलंकरण बना हुआ था। स्वयं राजा विराट ने ऐसा अभेद्य कवच धारण किया, जो शतसूर्य, शतावर्त, शतबिन्दु और शताक्षि नामक अभिप्रायों से अलंकृत था, इन भातियों की व्याख्या इनके नामों से सूचित होती है। ये गुप्तयुग के वस्त्रों के अभिप्राय थे, जिनका बर्तनों और कवचों को सजाने के लिए भी उपयोग होता था। अहिच्छत्रा से प्राप्त गुप्तकालीन मिट्टी के प्यालों पर ये आकृतियाँ स्पष्ट अंकित हैं। भारत से लेकर सासानी ईरान तक इन अलंकरणों का उस युग में प्रचलन था। सूर्यदत्त ने जो कवच पहना, उसमें नीचे से ऊपर तक सैकड़ों कमल और फुल्ले बने हुए थे। सेना को सज्जित होने की आज्ञा देकर विराट में मन में विचार की एक नई रेखा दौड़ गई। उसने सोचा कि क्यों न अपने इन नए ‘पुरुषों’ को भी कवच पहनाकर युद्ध के लिए ले चला जाय। देखने में ये सब डील-डौल वाले हैं, ऐसा नहीं कि ये युद्ध न कर सकें उसका तात्पर्य गुप्त पाण्डवों से था। उसने उन्हें भी सज्जित होने की आज्ञा दे दी। पूरी तैयारी के साथ विराट की सेना मैदान में पहुँची और त्रिगर्तों के साथ भिड़ गई। बड़ा घमासान युद्ध हुआ। अन्त में सुशर्मा ने विराट को पकड़ लिया। तब युधिष्ठिर के संकेत से भीम ने अपना पराक्रम प्रकट करके त्रिगर्तराज को क्षुद्र मृग के समान मथकर विराट को छुड़ा लिया। दूतों को जय की सूचना के लिए नगर में भेजा गया और स्वयं विराटराज गायों को लौटा लेने के लिए त्रिगर्त की ओर बढ़े। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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