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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 183
यहाँ दो छोटी कहानियाँ दी गई हैं। पहली में अरिष्टनेमि तार्क्ष्य का वर्णन है, जो केवल सत्य की उपासना करके स्वधर्म का अनुष्ठान करता था, एवं जो ब्राह्मणों के जीवन के हेय पक्ष की ओर न देखकर उनके जीवन के कल्याण-पक्ष का ही कथन करता था। ऐसा करने से वह मृत्यु-भय से ऊपर उठ गया। दूसरी कथा में वैन्य नामक राजर्षि अत्रि नामक ब्राह्मण को दान देता है। गौतम नामक ब्राह्मण राजा से दान लेने वाला अत्रि को धर्म-विहीन कहता है। अत्रि का दृष्टिकोण था कि राजा काल का विधाता है। वह पृथ्वी में प्रथम-स्थानीय है। राष्ट्र का ऐश्वर्य उसी में रहता है। उससे ऊपर कोई नहीं। गौतम ने इसका प्रतिवाद किया। दोनों ने सनत्कुमार से अपनी शंका का समाधान पूछा। उत्तर में सनत्कुमार ने प्राचीन वैदिक दृष्टिकोण की व्याख्या की और कहा, ‘‘क्षत्र को ब्रह्म के साथ और ब्रह्म को क्षत्र के साथ मिलकर रहना चाहिए। राजा सत्यधर्म का प्रवर्तक है। ऋषियों को भी जब अधर्म से डर लगा तब उन्होंने राजा को बल दिया। उसी बल से राजा भूमि पर अधर्म का नाश करता है।’’ इस व्याख्या को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है मानो हम राज्य-शक्ति और धार्मिक संघ के बलाबल का विवेचन सुन रहे हों, जिसमें अन्तिम निर्णय राजा के पक्ष में दिया गया- ‘उत्तरः सिद्धयेत पक्षो येन राजेति भाषितम्’ अर्थात धर्म और राजा इनके विवाद में राजा ही सिद्ध पक्ष है।[1] ‘राजावैः प्रथमो धर्मः’[2] यह दृष्टिकोण गुप्तकालीन ब्राह्मण-साहित्य का मनःपूत सिद्धान्त पक्ष था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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