विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
1. आदि पर्व
अध्याय : 1
2. कथा-सार तथा पर्व-सूची
इस प्रकार घटनाओं का सार रूप में परिगणन करने के बाद धृतराष्ट्र के मनोभावों की झांकी यों दी गई है- ‘हे संजय, मेरी बात सुनो। तुम प्राज्ञ हो, मेरे ऊपर रोष न करना। मेरा मन युद्ध में नहीं है और न मुझे कुरुओं का नाश ही अच्छा लगता है। अपने और पाण्डु के पुत्रों में भी मैं भेद नहीं मानता, पर मैं वृद्ध हूँ। मेरे उद्धत पुत्र मुझसे डांट-डपट करते हैं। मैं कुछ तो अन्धे होने की दीनता से और कुछ पुत्रों की प्रीति से सब सह लेता हूं, और उस जड़ दुर्योधन की भाँति मोह के जाल में फंस जाता हूँ।’ इस खिन्न मनःस्थिति में पड़े हुए धृतराष्ट्र मूल महाभारत की कहानी के छूटे हुए तार को पुनः वीरकाव्योचित गौरवयुक्त छन्द और शैली से आगे बढ़ाते हैं। ये 55 श्लोक धुरंधर छन्द एवं शब्द-योजना और सूत्र-रूप में कथा को कहने की विशेषता के कारण अत्यन्त प्राचीन ज्ञात होते हैं, जो महाभारत के मूल वीर-गाथात्मक रूप की स्मृति दिलाते हैं: ‘जब मैंने सुना कि द्वारका में माधव की बहन सुभद्रा को अर्जुन ने बलपूर्वक ब्याह लिया और फिर युद्ध करने के स्थान पर बलदेव और वासुदेव वृष्णि दायज लेकर इंद्रप्रस्थ पहुँच गए, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय! ‘जब मैंने सुना कि शकुनि ने अक्षद्यूत में युधिष्ठिर का राज्य जीतकर उसे हरा दिया और फिर भी उसके चारों अद्वितीय भाई रुष्ट होने के स्थान में उसके पीछे-पीछे चल दिये, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय! ‘जब मैंने सुना कि आंसुओं से रुंधे हुए कंठवाली, एक वस्त्र से शरीर ढके हुए दुखिया द्रौपदी को रजस्वलावस्था में ही अनाथ की भाँति मेरे पुत्र सभा में ले आए, तब इस घोर पाप की प्रतिक्रिया से भयभीत मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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