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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 50-78
देवता तो स्वर्ग लौट गए और कलि ने द्वापर से कहा, ‘‘हे द्वापर, मेरा क्रोध तभी ठंडा होगा जब मैं इस नल को राज्य से उखाड़ दूंगा, जिससे दमयन्ती के साथ वह सुखी न हो सके। तुम्हें पासों में घुसकर मेरी सहायता करनी हागी।’’ यह संकल्प करके वह निषध देश में आया और बारह वर्ष तक नल के महल का चक्कर काटता रहा, पर उसे नल की कोई चूक दिखाई न पड़ी। तब तक एक बार पैर धोये बिना नल सन्ध्योपासन के लिए बैठ गया। तुरन्त कलि उसमें प्रविष्ट हो गया और पुष्कर से जाकर बोला, ‘‘तू नल के साथ अक्षद्यूत कर और उसे जीतकर निषध का राजा बन। मैं तेरी सहायता करूंगा।’’ यह सुनकर पुष्कर ने नल को द्यूत के लिए ललकारा। नल उस चुनौती को न सह सका और दमयन्ती के सामने ही जुआ खेलने लगा। वह अपने सब रत्न, सुवर्ण और धन, यान, वाहन और वस्त्र हार गया। अक्षमद में मत्त हुए उसे कोई न रोक सका। तब पौर-जनों ने मंत्रियों के साथ आकर सूत द्वारा निवेदन किया कि हम नल के दर्शन करना चाहते हैं। दमयन्ती ने आखों में आंसू भरकर नल को सूचित किया, किन्तु वह कुछ न बोला। मंत्री और पुरवासी निराश हो अपने-अपने घरों को लौट गए एवं नल और पुष्कर का वह द्यूत उसी भाँति चलता रहा। विपत्ति आई जानकर दमयन्ती ने मंत्रियों को पुनः बुलवाया और नल को उनके आने की सूचना दी, किन्तु नल ने फिर भी न सुना। हताश हो दमयन्ती ने कहा, ‘‘राजा की बुद्धि पर मोह का ऐसा परदा पड़ा है कि मेरा भी वचन नहीं सुनता।’’ वह अपने सारथी से बोली, ‘‘मेरा मन कहता है कि अब कुछ शेष न बचेगा। तुम इन मेरे पुत्र-पुत्री को रथ पर बैठाकर कुण्डिनपुर जाओ और इन्हें वहा छोड़कर या तो तुम वहीं ठहरना या अन्यत्र चले जाना।’’ वह सारथी इन्द्रसेना और इन्द्रसेन को विदर्भ में भीम के पास पहुँचा कर स्वयं घूमता हुआ अयोध्या में ऋतुपर्ण राजा के यहाँ जाकर रहा। धीरे-धीरे पुष्कर ने नल का राज्य और धन सब हर लिया और हंसते हुए कहा, ‘‘आओ, फिर द्यूत खेलें। कुछ दांव पर रखने के लिए है? अब तो मैं सब ले चुका, एक दमयन्ती बची है। यदि चाहो तो उसे भी दांव पर रख दो।’’ पुष्कर की यह बात सुनकर क्रोध से नल का हृदय विदीर्ण हो गया। उसने कुछ कहा नहीं, किन्तु क्रोध से अपने सब आभूषण उतार कर फेंक दिये और केवल एक धोती पहन कर वहाँ से निकल पड़ा। यह कुशल ही हुई कि युधिष्ठिर की तरह नल ने दमयन्ती को दांव पर नहीं रख दिया। पतिव्रता दमयन्ती एक साड़ी पहने नल के पीछे हो ली। नल उसके साथ तीन दिन तक नगर के बाहर ठहरा। पुष्कर ने घोषणा करा दी कि जो कोई किसी प्रकार नल का सत्कार करेगा, मैं उसे प्राण-दण्ड दूंगा। भय से किसी ने भी नल की आवभगत न की। तीन दिन तक वह केवल जल पीकर रहा। चौथे दिन उसने कुछ सुनहले पक्षियों को देखकर सोचा कि मैं इनसे ही अपनी भूख बुझाऊं। यह सोचकर उसने उन्हें पकड़ने के लिए अपनी धोती फेंकी। वे उसे लेकर उड़ चले और कहते गए, ‘‘हे मूर्ख, हम वे ही पासे हैं। तुम वस्त्र पहनकर यहाँ से जाओ, यह हम नहीं सह सकते।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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