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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 60-72
इस प्रसंग में यह कहना आवश्यक है कि जिस समय दुःशासन ने द्रौपदी के वस्त्र खींचना आरम्भ किया, उस समय द्रौपदी ने जो कृष्ण से प्रार्थना की, वह प्रसंग महाभारत पूना संस्करण में प्रक्षिप्त होने के कारण पाद-टिप्पणी में चला गया है, क्योंकि अधिकांश हस्तलिखित प्रतियों के प्रमाण से ऐसा ही सिद्ध हुआ है। इसमें संदेह नहीं कि उस अतिदीन और करुण स्थिति में पड़ी हुई अनाथा द्रौपदी ने अवश्य ही धर्ममय नारायण का स्मरण किया होगा। कोई भी मानव ऐसी स्थिति में यही कर सकता है। उसके उत्तर में ईश्वर की महिमा क्या कर सकती है, इसके विवाद में कोई रस नहीं। यह अपने-अपने दृष्टिकोण और धार्मिक आस्था पर है। अवश्य ही उस समय जो द्रौपदी के साथ हो रहा था, उससे बढ़कर अनर्थ की कल्पना सम्भव नहीं। यदि धर्म और न्याय की कोई सत्ता है तो उसकी अभिव्यक्ति ऐसे अवसर पर होनी ही चाहिए। उस अभिव्यक्ति का एक रूप वह चमत्कार है, जिसके द्वारा द्रौपदी का वस्त्र इस प्रकार से बढ़ गया कि उसकी लज्जा बच गई; किन्तु यदि उस प्रकार का चमत्कार मानव के लिए प्रत्यक्ष न भी हो तो भी ईश्वर, सत्य, न्याय और धर्म, इनकी सत्ता अखंड है, वह त्रिकाल में अबाध रहती है। मानव उसके साथ कितना भी अनाचार से उसे छिपा या मिटा नहीं सकता। दुःख और अन्याय की अग्नि, जो थोड़े समय के लिए झुलसा देती है, अन्त में सत्य के अमृत से ही शान्ति पाती है। इस जगत में मनुष्यों द्वारा किए हुए अनाचारों का अन्त नहीं; किन्तु सृष्टि के सत्य की अनुभूति यह भी मानवीय मन की सबसे ऊंची प्राप्ति है। द्रौपदी के इस दुःखद-काण्ड के भीतर सत्य का वह प्रज्वलित रूप देखा जा सकता है। किस प्रकार युधिष्ठिर द्वारा आचार का उल्लंघन इस सर्वनाश का कारण हुआ, यह भी तो धर्म के दुर्धर्ष नियम की ही चरितार्थता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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