विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 60-72
उद्धत दुःशासन ने उत्तर दिया, “तुम मलिनवसना हो, एक वस्त्र पहने हो, या वस्त्रविहीना भी हो, तो भी जुए में जीती हुई दासी हो चुकी हो, दासियों के साथ यथाकाम व्यवहार होता है।” इस प्रकार दुःशासन से पराभव पाकर अमर्ष से जलती हुई द्रौपदी ने लज्जा और शोक से कहा, “अरे मन्दबुद्धि, इस सभा में शास्त्रों का उपदेश देने वाले क्रियावान गुरुजन सदस्य बैठे हैं। उनके सामने मैं खड़ी होने योग्य नहीं हूँ। तुम्हारा यह व्यवहार अनार्योचित और क्रूर है। हा, आज भारतों का सब धर्म नष्ट हो गया! क्षत्रियों का आचार लुप्त हो गया, जहाँ भरी सभा में कुरु-धर्म की मर्यादा इस प्रकार रौंदी जाती हुई सब चुपचाप देख रहे हैं। द्रोण और भीष्म में कुछ सत्त्व नहीं बचा, और क्या सचमुच महात्मा राजा धृतराष्ट्र तथा अन्य कुरुवृद्ध इस अधर्म को नहीं देख रहे?” यों कहते हुए उसने अत्यन्त करुणा से अपने पतियों की ओर देखा। उनके शरीरों में क्रोधाग्नि धधक रही थी। कृष्णा की दृष्टि देखकर वे और दुखी हुए। इसी अवसर पर दुःशासन ने रूखी हंसी हंसकर चिढ़ाते हुए उसे फिर ‘दासी’ कहा। कर्ण और शकुनि ने उसका अनुमोदन किया। दुर्योधन, कर्ण और शकुनि को छोड़कर जितने सदस्य वहाँ थे, सभी द्रौपदी को सभा में खींच कर लाई जाती हुई देखकर दुःख और शोक से गड़ गए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज